________________
खरतरगच्छीय साध्वी - परम्परा का इतिहास - १
समाज की सृष्टि में नारी का विशिष्ट योगदान है। समाज का अर्थ ही है नर और नारी । उसका अर्थ न तो नर ही है और न केवल नारी । नारी के बिना सृष्टि की रचना, समाज का संगठन, जातीय कार्यकलाप, गृहस्थ जीवन सभी अधूरे हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, चाहे वह धार्मिक आदर्श हो, चाहे समाज-सुधार अथवा राजनीति हो, नारी का सक्रिय योगदान रहा है ।
जहाँ तक नारियों के संन्यास या प्रव्रज्या का प्रश्न है, वैदिक युग में नारियों के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। बृहदारण्यक उपनिषद्', रामायण और महाभारत में नारियों के संन्यास लेने के प्रसंग मिलते हैं। इन नारियों ने पति के संन्यास लेने, उसकी मृत्यु अथवा योग्य वर न मिलने पर संन्यास का आश्रय लिया था । श्रमण परम्परा के जैन और बौद्ध दोनों धर्मों में इन कारणों के साथसाथ वैराग्य के कारण भी स्त्रियों के संन्यास लेने की व्यवस्था दृष्टिगत होती है।
जहाँ तक जैन धर्म में स्त्रियों की प्रव्रज्या का प्रश्न है, सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध से ज्ञात होता है कि पार्श्वनाथ की परम्परा महावीर से भिन्न थी । उत्तराध्ययनसूत्र २३/८७ में तो पार्श्वापत्यीय श्रमणों और श्रमणियों के लिए पंचमहाव्रतों को स्वीकार करने पर ही महावीर के संघ में सम्मिलित करने का उल्लेख है। इसी प्रकार स्पष्ट है कि महावीर के पूर्व ही जैन धर्म में भिक्षु–भिक्षुणी संघ की स्थापना हो चुकी थी । आचारांगसूत्र में श्रमण एवं श्रमणियों के आचार सम्बन्धी नियमों की चर्चा से स्पष्ट है कि जैन धर्म में श्रमण संघ और श्रमणी संघ दोनों की ही साथ - साथ स्थापना हुई थी।
समाज के प्रत्येक वर्ग की महिलाओं के प्रवेश के लिए जैन श्रमणी संघ का द्वार खुला हुआ था। स्थानांगसूत्र और उसकी टीका' में १० विभिन्न कारणों का उल्लेख है, जिनके कारण ही स्त्रियाँ दीक्षा ग्रहण करती थीं। ये कारण मुख्य रूप से सामाजिक, पारिवारिक एवं आर्थिक हैं। सामान्यतः नारी अपने पति, पुत्र, भाई या अन्य किसी प्रिय सम्बन्धी की मृत्यु या प्रव्रज्या ग्रहण करने पर स्वयं भी प्रव्रजित हो जाती थी । कभी-कभी धर्माचार्यों के उपदेश से भी स्त्रियों द्वारा प्रव्रज्या लेने का उल्लेख मिलता है।
जैन परम्परा में प्रारम्भ से ही स्त्रियों को समान धार्मिक अधिकार दिए गए और चतुर्विध संघ में साधु के साथ साध्वी तथा श्रावक के साथ श्राविका को भी सम्मिलित किया गया। जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों और उनकी शाखाओं में आज भी बड़ी संख्या में साध्वियाँ विद्यमान हैं । यहाँ श्वेताम्बर सम्प्रदाय की एक प्राचीन और महत्त्वपूर्ण शाखा - खरतरगच्छ की साध्वी परम्परा पर प्रकाश डाला
१. बृहदारण्यकोपनिषद्, ४-४
३. महाभारत, आदिपर्व ३-७४-१०
५. स्थानांग १० - ७१२, टीका भाग-५, पृ० ३६५-६६
६. जैन और बौद्ध भिक्षुणी संघ, डॉ० अरुणप्रतापसिंह, पृ० १२-१३
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
२. रामायण २-२९-१३, ३-७३-२६, ३-७४-३
४. सूत्रकृतांग २,७,७१-८०
Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
(३९९)
www.jainelibrary.org