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________________ र युगप्रवरागम श्री जिनपतिसूरि ४५. वहाँ पर संघ के प्रधान पुरुषों की सम्मति लेकर बड़े गाजे-बाजे और ठाठ-बाट के साथ जिनचन्द्रसूरि के पाट पर आचार्य योग्य छत्तीस गुणों से अलंकृत चौदह वर्ष की आयु वाले नरपति स्वामी नाम के ब्रह्मचारी को बिठाया गया। पाट पर आरूढ़ होने के पश्चात् इनका नाम परिवर्तन करके जिनपतिसूरि रखा गया। पाटारोहण सम्बन्धी सारा कार्य स्वर्गीय जिनदत्तसूरि जी महाराज के वयोवृद्ध शिष्य श्री जयदेवाचार्य के तत्वावधान में सम्पन्न हुआ। जिनपतिसूरि जी का जन्म वि०सं० १२१० में विक्रमपुर में हुआ था। उनकी दीक्षा सं० १२१७ की फाल्गुन शुक्ला १० को हुई थी और वे सं० १२२३ कार्तिक सुदि १३ को पाट पर आरूढ़ हुए। इनकी दीक्षा में अनेक देश-देशान्तरों से लोग आये थे। आगन्तुकों के आथित्य में एक हजार १०००/- रुपयों का व्यय भार श्री सेठ मानदेव जी ने उठाया था। श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज के समय में वाचनाचार्य पद को धारण करने वाले श्री जिनभद्राचार्य को आचार्य पद देकर श्रीसंघ ने द्वितीय श्रेणी का आचार्य बनाया। उसी स्थान पर श्री जिनपतिसूरि जी ने सर्वप्रथम पद्मचन्द्र, पूर्णचन्द्र नाम के दो गृहस्थों को प्रतिबोध देकर साधु-व्रत में दीक्षित किया। तत्पश्चात् सं० १२२४ में विक्रमपुर में गुणधर, गुणशी, पूर्णरथ, पूर्णसागर, वीरचंद्र और वीरदेव को क्रम से तीन नन्दियों की स्थापना करके दीक्षा दी। महाराज ने जिनप्रिय मुनि को उपाध्याय पद प्रदान किया। सं० १२२५ में पुष्करणी नामक नगर में सपत्नीक जिनसागर, जिनाकर, जिनबन्धु, जिनपाल, जिनधर्म, जिनशिष्य, जिनमित्र को पंचमहाव्रतधारी बनाया। महाराज ने पुनः विक्रमपुर में आकर जिनदेवगणि को दीक्षा दी। इसके बाद सं० १२२७ में पूज्यश्री उच्चानगरी में आये और वहाँ पर धर्मसागर, धर्मचन्द्र, धर्मपाल, धर्मशील, धनशील, धर्ममित्र और इनके साथ धर्मशील की माता को भी दीक्षित किया। जिनहित मुनि को वाचनाचार्य का पद दिया गया। वहाँ से महाराज मरुकोट आये, मरुकोट में शीलसागर, विनयसागर और शीलसागर की बहन अजितश्री को संयम व्रत दिया। सं० १२२८ में पूज्यश्री सागरपाड़ा पहुँचे। वहाँ पर सेनापति अम्बड़ तथा दुसाझ गोत्रीय सेठ साढ़ल के बनाये हुये अजितनाथ स्वामी तथा शान्तिनाथ स्वामी के मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई। इसी वर्ष बब्बरेक गाँव में भी विहार कर पधारे। वहाँ से आशिका नगरी के श्रावकों को पता लगा कि महाराज पास के गाँव में पधार गये हैं, तो आशिका के राजा भीमसिंह को साथ लेकर श्रावक वर्ग महाराज के पास पहुंचा। वन्दना-नमस्कार व्यवहार के बाद आज पूज्यश्री ने कुशल प्रश्न किया तो राजा ने स्वरूपवान और लघुवय वाले आचार्य के वचनों में अत्यधिक मधुरता देखकर कुछ उपदेश सुनाने के लिए प्रार्थना की। सूरीश्वर ने राजनीति के साथ धर्म का उपदेश दिया। अवसर देखकर राजा ने केलिवश कहा-"भगवन् ! हमारे नगर में एक दिगम्बर महाविद्वान् हैं। क्या उसके साथ आप शास्त्रार्थ करेंगे?" महाराज की सेवा में बैठे हुए जिनप्रिय उपाध्याय ने कहा-"राजन्! हमारे धर्म में चल कर (६२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International 2010_04
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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