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पदोपयोगी कोई योग्य व्यक्ति दृष्टिगोचर नहीं हुआ, अन्ततोगत्वा सबका ध्यान कल्याणचन्द्र जी महाराज पर गया। संघ के अत्यन्त अनुनय-विनय तथा आग्रह के आगे इच्छा न होने पर भी केवल लोककल्याण कामना से आप श्री संघ सहित लखनऊ आए और वहीं पर आपका पाट महोत्सव बड़े धूमधाम से वि०सं० १९१५ फाल्गुन सुदि ५ को सम्पन्न हुआ। तदनन्तर आपने झुंझनूं, चिडावा, बहरोड़, अलवर, जयपुर, दिल्ली आदि अनेक नगरों में चातुर्मास करते हुए सं० १९२१ में हस्तिनापुर तीर्थ पर कलकत्ता निवासी श्री प्रतापचंद जी पारसान के बनवाये हए मन्दिर में श्री शांतिनाथ स्वामी, श्री जिनदत्तसूरि जी तथा श्री जिनकुशलसूरि जी के चरणों की प्रतिष्ठा कराई। सं० १९२२ में कलकत्ता में रायबहादुर बद्रीदासजी के निर्माण कराये हुए विश्वविश्रुत शीतलनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा कराई। बाबू बद्रीदासजी को सम्पत्तिशाली बनाने वाले चरित्रनायक आचार्य प्रवर ही थे। वहीं मन्दिर के उद्यान में प्रतिष्ठाकारक आचार्यश्री की और उनके साथ ही निर्माणकर्ता तथा उनके पितामह की प्रतिमाएँ एक भव्य स्तूप-देवगृह में विराजमान हैं, जिनकी वेदी प्रतिष्ठा आचार्य जी के प्रशिष्य जिनरत्नसूरि जी ने कराई।
गाँव मन्दिर पावापुरी में प्रवेश करते ही बायें हाथ की ओर श्री जिनकल्याणसूरि जी का तत्कालीन भव्य उपाश्रय अब भी विद्यमान है। आपश्री कल्याण मूर्ति थे। परिग्रह से सदा ही नि:स्पृह रहे। इनके जीवन में यह श्लाघनीय गुण था। आचार्यश्री कलकत्ता से विहार करते हुए कानपुर पधारे। वहाँ पर भी बाबू सन्तोषचन्द्रजी भण्डारी के पूर्वजों द्वारा निर्मापित शीशे का मन्दिर नाम से विख्यात मंदिर की प्रतिष्ठा कराई। आपका स्वर्गवास वि०सं० १९३७ में दिल्ली में हुआ, जिसका स्मृति स्तूप छोटे दादा गुरु के स्थान (साउथ एक्स्टेंशन) पर है, जहाँ आपका अग्नि संस्कार सम्पन्न हुआ था।
(१०. आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि )
आपका प्रारंभिक जीवनवृत्त अनुपलब्ध है। सं० १९३६ में आपका आचार्यश्री जिनकल्याणसूरि जी के पट्ट पर अभिषेक हुआ। आप सभी शास्त्रों के उद्भट विद्वान्, तांत्रिक
और निर्भीक धर्म प्रचारक आचार्य थे। आपने बनारस पधार कर यहाँ के विद्वानों को शास्त्रार्थ में सन्तुष्ट और चकित किया और पाँच-पाँच रुपये तथा शिरोवेष्टन प्रदान करा कर उनका सम्मान किया। आपका तपोबल भी चमत्कारपूर्ण था। एक बार कलकत्ता में सेठ बद्रीदासजी की भक्ति श्रद्धा से प्रसन्न होकर उनके हाथ से आपने किसी गुप्त सुरक्षित स्थान पर कुछ रुपये भूमि में गड़वा कर तीन दिन तक सिद्धमंत्र प्रयोग किया। तीसरे दिन देखने पर रुपयों के बदले मंत्र द्वारा विलायत से मंगाई हुई नीलम की टुकड़ी दिखाई दी। सेठ जी की वंश परम्परा में जब तक वह . नीलम खण्ड रहा, तब तक अटूट सम्पत्ति और शारीरिक सुख परिवार में रहता रहा। इसी प्रकार दिल्ली में आपके नगर प्रवेश महोत्सव के अवसर पर अति निर्धन, किन्तु परम श्रद्धालु
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04
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