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________________ सेठ क्षेमंधर फिर से पूज्यश्री की आज्ञा लेकर प्रद्युम्नाचार्य को वन्दना करने उनके उपाश्रय में गये। आचार्य ने भी बहुमानपूर्वक सेठजी से तीर्थ-वन्दना सम्बन्धी बातें पूछ कर पूर्व प्रतिज्ञा को याद दिलाते हुए कहा कि-सेठजी! क्या आप अपना यह वचन भूल गए? उत्तर में क्षेमंधर ने कहा-भला मैं उस बात को कैसे भूला सकता हूँ। उस प्रयोजन से तो यहाँ आना ही हुआ है। प्रद्युम्नाचार्य ने अपने मन में सोचा-इस अवसर से हमें लाभ उठाना चाहिए। संघ में हमारे कई एक सांसारिक बन्धु आये हुये हैं, शास्त्रार्थ के बहाने उन सब को हम प्रतिबोध दे सकेंगे। मन में इस प्रकार निश्चय करके वे सेठ क्षेमंधर से कहने लगे-सेठजी ! तो अब विलम्ब किस बात का है? सेठ ने कहा-उठिये, अभी चलिये, देरी का क्या काम? इस प्रकार के वचन सुन सेठ क्षेमंधर के साथ प्रद्युम्नाचार्य श्री जिनपतिसूरि जी के पास आये। साधु संप्रदाय के नियमानुसार बड़े-छोटे के हिसाब से दोनों ओर से वन्दनानुवंदन का व्यवहार प्रदर्शित किया गया। तत्पश्चात् पूज्यश्री ने प्रद्युम्नाचार्य से पूछा-आपने कौन-कौन से ग्रन्थ देखें हैं? नई उम्र में स्वभावतः पैदा होने वाले अहंकार के अधीन होकर प्रद्युम्नाचार्य बोले कि-वर्तमान काल में विद्यमान सभी ग्रंथ हमने देखे हैं। इस अहंकार भरे वाक्य को सुनकर पूज्यश्री ने विचारा कि-यदि हम इसके वाक्यों में पहले ही पहले नुकताचीनी करेंगे तो, यह आकुल-व्याकुल होकर कुछ का कुछ बोलने लग जायगा। ऐसा होने से इसके शास्त्रीय ज्ञान का स्वरूप नहीं जाना जायेगा। अतः पूज्यश्री ने कहा-आप अपने अभ्यस्त शास्त्रों के नाम तो बतलाइये? उसने कहा-हैमव्याकरण आदि लक्षण शास्त्र, माघ काव्य आदि महाकाव्य, कादम्बरी आदि कथा, महाकवि मुरारि आदि के प्रणीत आदि अनेकों नाटक, जयदेव आदि अनेकों कवि रचित छन्दःशास्त्र, कन्दली, किरणावली, अभयदेवीय न्याय तर्क, काव्यप्रकाशादि अलंकार और सभी सिद्धान्त (आगम) हमने आनुपूर्विक देखे हैं। पूज्यश्री मन ही मन विचारने लगे-इसने तो खूब गाल बजाये। इसका शास्त्रीय ज्ञान इतना है या नहीं? जरा जाँच तो करें। पूज्यश्री ने पूछा-आचार्य! लक्षण का क्या स्वरूप है और कितने भेद हैं? प्रद्युम्नाचार्य-काव्यप्रकाश के अनुसार लक्षण के स्वरूप और भेदों का विवेचन करने लगा। तब पूज्यश्री ने विचारा कि यदि हम बीच में ही इसे रोकेंगे-टोकेंगे, तो यह इसी पर अड़ जायगा। आयतन-अनायतन विषयक चर्चा नहीं हो सकेगी। इसलिए इसे बेरोक-टोक बोलने दिया जाय, जिससे यह अहंकार की चरम सीमा तक पहुँच जाय । इसलिए पूज्यश्री ने ऐसा कोई वचन नहीं कहा, जिससे उसका मनम्लान हो। (१००) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org __Jain Education International 201004
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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