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________________ आये। यहाँ मंत्री कर्मचन्द्र का देहान्त सं० १६५६ के मार्गशिर मास के बाद हुआ। सं० १६५७ का वर्षावास पाटण में बिता कर सिरोही पधारे, वहाँ पर माघ सुदि १० को प्रतिष्ठा की। सं० १६५८ खंभात, १६५९ अहमदाबाद, सं० १६६० पाटण, सं० १६६१ में महेवा चातुर्मास किया। मिती मिगसर कृष्णा ५ को कांकरिया कम्मा के द्वारा जिनालय प्रतिष्ठा करवाई। सं० १६६२ में बीकानेर पधारे। मिती चैत्र वदि ७ के दिन नाहटों की गवाड़ स्थित शत्रुजयावतार आदिनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा करवाई। सं० १६६३ का चातुर्मास बीकानेर हुआ। सं० १६६४ वैशाख सुदि ७ को बीकानेर में श्री महावीर जिनालय की प्रतिष्ठा की। सं० १६६४ का चातुर्मास लवेरा में हुआ। जोधपुर से राजा सूरसिंह वन्दनार्थ आये। अपने राज्य में सर्वत्र सूरिजी का वाजित्रों के साथ प्रवेशोत्सव हो, ऐसा परवाना जारी किया। सं० १६६५ में मेड़ता चातुर्मास कर अहमदाबाद पधारे। सं० १६६६ का खंभात, सं० १६६७ का अहमदाबाद और सं० १६६८ का चातुर्मास पाटण में किया। इस समय एक ऐसी घटना हुई जिससे सूरिजी को वृद्धावस्था में भी सत्वर विहार करके गुजरात से आगरा आना पड़ा। बात यह थी कि जहाँगीर का शासन था, उसने किसी यति के अनाचार से क्षुब्ध होकर सभी यति साधुओं को आदेश दिया कि वे गृहस्थ बन जाएँ, अन्यथा उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाय। इस आज्ञा से सर्वत्र खलबली मच गई। कई देश-देशान्तर गये और कई भूमिगृहों में छिप गये। इस समय जैन शासन में आपके सिवा कोई ऐसा प्रभावशाली नहीं था जो सम्राट के पास जाकर उसकी आज्ञा रद्द करावे। सूरि महाराज आगरा जाकर बादशाह से मिले और उसके हुक्म को रद्द करवा के साधुओं का विहार खुलवाया। सं० १६६९ का चातुर्मास आपने आगरे में किया। इस चौमासे में बादशाह जहाँगीर का सूरिजी से अच्छा संपर्क रहा और शाही दरबार में भट्ट को पराजित कर सूरिजी ने "सवाई युगप्रधान भट्टारक" नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की। ___चातुर्मास के पश्चात् सूरिजी मेड़ता पधारे। बीलाड़ा के संघ की विनती से आपने बीलाड़ा चातुर्मास किया। आपके साथ सुमतिकल्लोल, पुण्यप्रधान, मुनिवल्लभ, अमीपाल आदि साधु थे। पर्युषण के पश्चात् ज्ञानोपयोग से अपनी आयु शेष जान कर, शिष्यों को हित शिक्षा देकर अनशन कर लिया। चार प्रहर अनशन पाल कर सं० १६७० आश्विन कृष्णा २ को स्वर्गधाम पधारे। आपकी अन्त्येष्टि बाण गंगा के तट पर वनराजी शोभित भूमिका में मेड़तिया दरवाजा के बाहर बड़े भारी समारोह के साथ की गई। कृष्णागर, चंदन, घृत से चिता प्रज्वलित हुई और देखते-देखते आपकी तपः पूत देह भस्मीभूत हो गई, परन्तु आश्चर्य है कि आपकी मुखवस्त्रिका लेश मात्र भी नहीं जली। अग्नि-संस्कार स्थान पर बीलाड़ा संघ ने सुन्दर स्तूप बनवाया और गुरुदेव के चरणों की प्रतिष्ठा मार्गशीर्ष सुदि १० के दिन की गई। आपके पट्ट पर श्री जिनसिंहसूरि विराजमान हुए। आपश्री महान् प्रभावक युगप्रधान आचार्य थे, चिरकाल तक विविध प्रकार से शासन सेवा कर ईशान देवलोक में उत्पन्न हुए। जैन शासन में आप चौथे दादा साहब नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हैं। (२३०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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