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आवश्यक होने से जिनदत्तसूरि सेवा संघ के प्रयत्न से पेढी द्वारा सम्पन्न हुआ। बम्बई के सेठ पूनमचंद गुलाबचंद गोलेछा ने इसका पूरा लाभ लिया। प्रतिष्ठा हेतु आप सैलाना से पालीताना पधारे । गच्छ के सभी साधु-साध्वियों का समागमन हुआ। सं० २०१६ वैशाख सुदि ६ को नवनिर्मित देहरियों में आपके कर-कमलों से प्राचीन चरणों की स्थापना हुई। इस वर्ष पालीताना चातुर्मास में २६ मुनिराज व ८२ साध्वियाँ विराजमान रहे। श्री जिनदत्तसूरि सेवा संघ का द्वितीय अधिवेशन हुआ, जिसमें मद्रास के सेठ पूनमचंद रूपचंद भंसाली अध्यक्ष हुए। दस मासक्षमण, उपधान तप आदि अनेक उत्सव हुए। श्री जिनहरिविहार के लिए प्लाट खरीदा गया। सं० २०१७ पौष सुदि १० को आपका आकस्मिक स्वर्गवास हो जाने से उसी स्थान पर अन्तिम संस्कार सम्पन्न हुआ।
((१३) आचार्य श्री जिनकवीन्द्रसागरसूरि
आपका जन्म पालनपुर निवासी श्री निहालचंद शाह की धर्मपत्नी बब्बू बाई की कोख से सं० १९६४ में चैत्र सुदि १३ के शुभ दिवस में हुआ। नाम था धनपत। १० वर्ष की आयु में पिताश्री की छत्रछाया उठ जाना ही आपके वैराग्य का कारण बना। आर्यारत्न श्री पुण्यश्री जी महाराज के पास दीक्षित साध्वी दयाश्री जी आपकी बड़ी मौसी थीं। अतः श्री रत्नश्री जी के उपदेशों से आपका वैराग्य पुष्ट हुआ और उन्होंने शिक्षा-दीक्षा हेतु इनको गणाधीश्वर श्री हरिसागर जी के पास कोटा भेज दिया। थोड़े दिनों में प्रतिक्रमण, स्तवन, सज्झाय, जीवविचार, नवतत्त्वादि प्रकरण, किशोर बालक धनपतशाह ने सीख लिए। गणाधीश जी जयपुर पधारे और सं० १९७६ में फाल्गुन कृष्णा ५ को चार अन्य वैरागियों के साथ दीक्षित कर कवीन्द्रसागर नाम से अपना शिष्य प्रसिद्ध किया।
गुरुदेव की छत्रछाया में आपने व्याकरण, काव्य, कोश, छन्द, अलंकारादि शास्त्रों का अध्ययन किया। सोलह वर्ष की आयु में आप आशु कवि बन गए। आपकी हिन्दी और संस्कृत रचनाएँ दार्शनिक
और तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण हैं। क्या स्तवन-सज्झाय, क्या पूजाएँ, क्या चैत्यवंदन स्तुतियाँ सभी सरल और प्रसाद गुण युक्त हैं। आप योग-साधन में निष्णात थे। ओसियाँ की पर्वत गुफा और लोहावट की टेकरी पर आपने साधना की थी। जयपुर की मोहनवाड़ी में तपस्या पूर्वक साधना में बैठने पर रात भर फन उठाए नागदेव उपस्थित रहे। आपने मासक्षमण, पक्षक्षमण, अठाइयाँ, पंचोले आदि तप भी किए।
आपने लघु रचनाओं के अतिरिक्त पूजा साहित्य में प्रचुर वृद्धि की। अनेक रचनाएँ आपने गुरु महाराज और गुरुभ्राताओं के नाम से भी गुंफित की। आप द्वारा निर्मित-रत्नत्रय पूजा, पार्श्वनाथ पंच कल्याणक पूजा, महावीर पूजा, चौसठ प्रकारी पूजा, चारों दादा साहब की पूजाएँ, चैत्री पूर्णिमाकार्तिकी पूर्णिमा विधि, उपधान तप-बीस स्थानक तप-वर्षी तप-छः मासी तप, देववन्दन विधि एवं शताधिक स्तवनादि प्राप्त और प्रकाशित हैं। पालीताना का श्री जिनहरिविहार आपका कीर्ति स्तंभ है। आपके ही प्रयत्नों से हरि विहार की भूमि खरीदी गई थी।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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