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युगप्रधान श्री जिनकुशलसूरि
९१. चातुर्मास समाप्त होने पर पूज्यश्री के दिये हुए सब तरह की शिक्षा युक्त पत्र लेख को लेकर जयवल्लभ गणि श्री राजेन्द्रचन्द्राचार्य जी के पास भीमपल्ली आये । पत्र के आशय को समझ कर श्री राजेन्द्रचन्द्राचार्य जी, श्री जयवल्लभ गणि आदि-आदि साधुओं को साथ लेकर पाटण आये । पाटण में उस समय मुसलमानों के उपद्रव एवं दुर्भिक्ष के कारण स्थिति बड़ी भयानक थी, परन्तु अपने ज्ञान-ध्यान के बल से महोत्सव में आने वाले चतुर्विध संघ के कुशल मंगल का निश्चय करके अपने दिवंगत गुरुश्री के आदेश को लक्ष्य बिन्दु मान कर सिद्धि - रामा के तुल्य निर्मल चित्त वाले श्री राजेन्द्रचन्द्राचार्य जी ने सं० १३७७ ज्येष्ठ वदि एकादशी के दिन कुंभ लग्न में मूल पद स्थापना (मुख्य सूरि पद) का महोत्सव निश्चय किया । चन्द्रकुलावतंस, श्री जिनशासन की प्रभावना करने में उद्यत, उदारता में कर्णादि को भी पराजित करने वाले सेठ जाल्हण के पुत्र सुश्रावक तेजपाल ने अपने भाई रुद्रपाल के साथ श्रीमान् पूज्य आचार्य महाराज के अनुग्रहों से आचार्य पद स्थापना महोत्सव कराने का भार अपने ऊपर लेकर चारों दिशाओं में योगिनीपुर, उच्चापुर, देवगिरि, चित्तौड़, खंभात आदि स्थानों तक के समग्र देश - - नगर व ग्रामों में रहने वाले विधि मार्गानुयायी श्रावकों को पाट महोत्सव पर बुलाने के लिए अपने आदमियों के हाथ कुंकुम पत्रिकाएँ भेजीं। पत्र द्वारा समाचार पाकर दुर्भिक्ष आदि की भयानकता की परवाह न करके सब स्थानों के विधि - समुदायवर्ती प्रसन्न मुख वाले अनेक श्रावक लोग होड़ाहोड़ करते हुए महोत्सव के दिन पर पाटण आ पहुँचे । ठक्कुर श्री विजयसिंह भी पूज्य श्री के दिये पाट - स्थापना सम्बन्धी कार्यों की शिक्षा देने वाले बन्द लिफाफे को लेकर योगिनीपुर (दिल्ली) से पाटण आ पहुँचा । सब स्थानों से सब समुदायों के आ जाने के बाद अपने प्रतिज्ञा कार्य को सफल करने में तत्पर श्री राजेन्द्रचन्द्राचार्य ने श्री जिनदत्तसूरि जी के गच्छ रूप मन्दिर के आधार स्तम्भ, सकल विद्याओं के पढ़ाने में अद्वितीयोपाध्याय श्री विवेकसमुद्रोपाध्याय, प्रवर्तक जयवल्लभ गणि, हेमसेन गणि, वाचनाचार्य हेमभूषण गणि आदि तैतीस साधुओं की उपस्थिति में तथा जयर्द्धि महत्तरा, प्रवर्तिनी बुद्धिसमृद्धि गणिनी, प्रवर्तिनी प्रियदर्शना गणिनी आदि २३ साध्वियों और सारे स्थानों से आने वाले समुदायों के समक्ष श्री जयवल्लभ गणि और ठ० विजयसिंह जी के द्वारा प्राप्त स्वर्गीय पूज्यश्री के दोनों पत्र पढ़ कर सुनाये । दिवंगत आत्मा के सन्देशों को पत्रों द्वारा सुनकर चतुर्विध संघ नवीन हर्ष की तरंगों में हिलोरें लेने लगा, जैसे कोई नवीन निधि प्राप्त हो गई हो। गुरु की आज्ञा-पालन में दृढ़, सब प्रकार के अतिशयों से शोभित, चार प्रकार के विधि-संघ से परिवृत श्री राजेन्द्रचन्द्राचार्य ने कर्त्तव्य की समग्र शिक्षा से समन्वित पूज्यश्री के पत्र - लेख के अनुसार मंत्रीश्वर राजकुल के प्रदीप, मंत्री जैसल की धर्मपत्नी जयश्री के पुत्र, चालीस वर्ष की उम्र वाले, अपने युग में सर्व विद्यमान तमाम उत्तम शास्त्रों के ज्ञाता, वाचनाचार्य कुशलकीर्ति गणि को शान्तिनाथ देव तथा सकल समुदायों के समक्ष गुजरात के मुकुट के समान श्री पाटण नगर में युगप्रधान पदवी देकर उत्सव के साथ कलिकाल केवली श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज के पाट पर स्थापित किया और पूज्य गुरुदेव का
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड
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