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________________ सब में से व्याकरण, धर्मशास्त्र, साहित्य, तर्क, सिद्धान्त और लोक व्यवहार को जानने में आचार्य अधिक हैं। अधिक क्या कहें, ऐसी कोई विद्या बाकी रही हुई नहीं है, जो इनके मुख-कमल में आकर न विराज गयी हो।" असहनशील, निर्लज्ज पद्मप्रभाचार्य ने अपने करने की समस्या-पूर्ति को बिना किए ही मौका देखकर पूज्यश्री की समालोचना करनी शुरु की-राजन्! कलहशील, झगड़ालू कई एक मनुष्यों के पास विद्या का न होना ही भला है, क्योंकि ऐसे लोग विद्याबल से निरन्तर लोगों के साथ कलह किया करते हैं और लोगों के आगे बुरा आदर्श खड़ा करते हैं। देखिये लिखा है विद्या विवादाय धनं मदाय, प्रज्ञाप्रकर्षाऽपरवञ्चनाय। अभ्युन्नतिर्लोकपराभवाय, येषां प्रकाशे तिमिराय तेषाम्॥ [जिन पुरुषों की विद्या विवाद (झगड़ा) करने के लिए है और धन गर्व (घमण्ड) पैदा करने के लिए है बुद्धि की अधिकता दूसरों को ठगने के लिये है और उन्नति लोगों का तिरस्कार करने के वास्ते है। उनके लिए प्रकाश भी अन्धकार के समान है। ऐसा कहना कोई अत्युक्ति नहीं है।] पूज्यश्री ने कहा-भद्र पद्मप्रभ! यदि आप नाराज नहीं हो तो हम एक हित की बात कहें। उसने कहा-कहिए। आचार्य बोले-महानुभाव! इस प्रकार अशुद्ध श्लोक का उच्चारण करते हुए आप जैसे एक भी पंच महाव्रतधारी साधु को देखकर मिथ्यात्वी लोग समझेंगे कि इन श्वेताम्बर साधुओं को शुद्ध श्लोक तक बोलना नहीं आता तो और शास्त्र-विचार तो क्या जान सकेंगे। इसलिए लोकोपहास से बचने के लिए आज के बाद "प्रज्ञाप्रकर्षः परवञ्चनाय और येषां प्रकाशस्तिमिराय तेषाम्" इस प्रकार बोला कीजिए। दूसरे इस प्रसंग में जो (विद्या विवादाय) श्लोक कहा वह सर्वथा प्रसंग विरुद्ध है, क्योंकि हमने तुमसे नहीं कहा था कि तुम हमारे साथ वाद-शास्त्रार्थ करो। तुमने ही फलौदी में हमारे भक्त श्रावकों के आगे कहा था कि-अपने गुरु को यहाँ ले आओ, मैं उनको हराने में समर्थ हूँ। अपना कन्धा हिलाता हुआ पद्मप्रभ बोला-हाँ! मैंने कहा था। पूज्यश्री-किसकी शक्ति के भरोसे पर? पद्मप्रभ-मेरी अपनी निजी शक्ति के भरोसे पर। पूज्यश्री-अब वह तुम्हारी शक्ति क्या कौओं ने चर ली? पद्मप्रभ-नहीं, नहीं। पूज्यश्री-तो फिर कहाँ गई? पद्मप्रभ-मेरी भुजाओं के बीच विद्यमान है, परन्तु बिना अवसर प्रकाशित नहीं की जाती। पूज्यश्री-उसके प्रकाशित करने का अवसर कब आयेगा। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (७९) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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