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________________ पद्मप्रभ-राजा साहब की आज्ञा लेकर अपनी शक्ति का परिचय दूंगा। पूज्यश्री-शीघ्रता कीजिये। इसके बाद पद्मप्रभाचार्य अपने मन में सोचने लगा-इस आचार्य ने शारीरिक प्रभाव से, वचन चातुरी से, विद्याबल से और वशीकरणादि मंत्र के प्रयोग से यहाँ पर उपस्थित सभी राजा और राजपुरुषों को अपने अनुरागी भक्त बना लिये हैं और मैंने अपने भक्त श्रावक लोग जो उस प्रकार की राज-प्रसन्नता के कारण प्रसन्न मुख थे उनके मुख पर भी कालिमा लगा दी। क्या करें? कोई भी उपाय फल नहीं देता। अस्तु, तथापि पुरुषेण सता पुरुषकारो न मोक्तव्यः अर्थात् कुछ भी हो किन्तु पुरुष को पुरुषार्थ नहीं छोड़ना चाहिए। इस कहावत के अनुसार अब भी जैसे-तैसे हिम्मत करके इस आचार्य के साथ समता/बराबरी प्राप्त करना योग्य है। तभी इस देश में रहना हो सकेगा। अन्यथा लोगों में होने वाले उपहास एवं अनादर को हम नहीं सह सकेंगे। इस दुःख से हमें और हमारे श्रावकों को यह देश ही त्यागना पड़ेगा। इस प्रकार गहराई के साथ खूब सोच कर वह राजा से कहने लगा-"महाराज! मैंने छत्तीस संख्या में दण्ड नामक आयुध प्रकार के अभ्यास से (शस्त्र) मल्ल विद्या में परिश्रम किया है। इसलिए इस आचार्य को मेरे साथ कुश्ती लड़ाइये।" राजा पृथ्वीराज जैन-साधुओं के आचार-व्यवहार से अनभिज्ञ था और कुश्ती का कौतुक देखने की इच्छा थी, इसलिए पूज्यश्री की ओर इस अभिप्राय से देखने लगा कि ये भी कुश्ती के लिए तैयार हो जायें। पूज्यश्री ने आकृति और चेष्टाओं से राजा का अभिप्राय जानकर कहा-राजन् ! बाहु युद्ध आदि क्रीड़ाएँ हाथियों की है। वे अपने शुण्डा-दण्ड से बल की आजमाईश किया करते हैं। एक-दूसरे के गले चिपट कर झगड़ना बालकों के लिए शोभादायक है, बड़ों के लिये नहीं। शस्त्र लेकर परस्पर में लड़ते हुए राजपूत ही अच्छे लगा करते हैं। इस कार्य को यदि बनिये करें तो उनकी शोभा नहीं होती। दन्त-कलह करना वेश्याओं का काम है न कि राज-रानियों का। अब आप ही बतलाइये, पद्मप्रभाचार्य का यह युद्ध निमंत्रण कैसे स्वीकार करें? यह हमारा काम नहीं है। पण्डित लोग तो अपने-अपने शास्त्र ज्ञान के अनुसार उत्तर-प्रत्युत्तर देते हुए ही अच्छे लगा करते हैं। आचार्यश्री के इस कथन के मध्य में ही राजपण्डितों ने भी राजा से कहा-महाराजाधिराज! हम लोग पण्डिताई के गुण से ही आप श्री के पास से जीविका पाते हैं, न कि मल्ल विद्या गुण से। कदाचित् आप हमें मल्ल-युद्ध में प्रवृत्त होने की आज्ञा दें तो हम उस आज्ञा का पालन करने में असमर्थ हैं। पूज्यश्री बोले- पद्मप्रभ! इस सभा में अपने मुँह ऐसी बात करते हुए तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आती। वे फिर राजा से बोले-राजन् ! यदि इसकी शक्ति हो तो यह हमारे साथ शुद्ध प्राकृत भाषा, संस्कृत भाषा, मागधी भाषा, पिशाच भाषा, शूरसेनी भाषा, अपभ्रंश भाषा आदि भाषाओं में गद्य (८०) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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