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आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि नया
६६. कुछ समय पश्चात् जालौर में सारे संघ की सम्मति से श्री जिनहितोपाध्याय, श्री जिनपालोपाध्याय आदि प्रधान - प्रधान साधुओं के साथ श्री सर्वदेवसूरि जी ने श्री जिनपतिसूरि जी महाराज की बताई हुई रीति के अनुसार आचार्य पद के योग्य, छत्तीस गुणों से युक्त, सौभाग्य भाजन, सर्वजन ग्राह्य वचन, मृदुभाषी, विनीत, दश प्रकार के यति धर्मों के आदि भूत, क्षमा के क्रीडा स्थान श्री वीरप्रभ गणि को सं० १२७८ माघ सुदि ६ के दिन स्वर्गीय आचार्य श्री जिनपतिसूरि जी के पाट पर स्थापित किया। अब इनका नाम परिवर्तन कर जिनेश्वरसूरि रखा गया । यह पाट महोत्सव अनेक दृष्टियों से अनुपम हुआ था । इस शुभ अवसर पर बड़े भक्ति भाव से देश - देशान्तरों से अनेक धनीमानी भव्य लोग आए थे। उनकी ओर से स्थान-स्थान पर गरीबों के लिए सदावर्त खोले गये थे । जगह-जगह सुन्दरी ललनाएँ युगप्रधान गुरुओं की कीर्तिगान के साथ नृत्य कर रही थीं । उत्सव के दिनों में प्राणिवध के निषेध निमित्त अमारि घोषणा की गई थी। हजारों रुपये व्यय कर याचकों के मनोरथ पूरे किये गये थे। आये हुए लोग वेष और आभूषणों की छटा से इन्द्र की भी स्पर्धा कर रहे थे। उस समय जैन शासन की प्रभावना देखकर अन्यदर्शनी लोग भी निःसंकोच होकर शासन की प्रशंसा करते थे । अन्यमतावलम्बी लोग अपने-अपने देवों को बार-बार धिक्कारते हुए जैन धर्म पर मुग्ध हुए जाते थे। भाट लोग खरतरगच्छ की विरुदावली पढ़ रहे थे। चारों तरफ से अनेक प्रकार के आशीर्वादों की झड़ी लग रही थी । तीर्थ - प्रभावना के निमित्त तोरण बन्दरवार आदि से भगवान् महावीर का मन्दिर कि जिसमें यह सूरि पदारोहण होने को था, बड़े अच्छे ढंग से सजाया गया था।
पाट महोत्सव के बाद माघ सुदि नवमी के दिन श्री जिनेश्वरसूरि जी महाराज ने यश: कलश गणि, विनयरुचि गणि, बुद्धिसागर गणि, रत्नकीर्ति गणि, तिलकप्रभ गणि, रत्नप्रभ गणि और अमरकीति गणि इन सात साधुओं को दीक्षित किया। जाबालिपुर के सेठ यशोधवल के साथ विहार कर के श्री भिन्नमालपुर गए। वहाँ पर ज्येष्ठ सुदि १२ के दिन श्रीविजय, हेमप्रभ, तिलकप्रभ, विवेकप्रभ और चारित्रमाला गणिनी, ज्ञानमाला, सत्यमाला गणिनी इन साधु-साध्वियों को दीक्षा देकर निवृत्ति मार्ग के पथिक बनाये। इसके बाद वहाँ से विहार कर गए। बाद में सेठ जगद्धर की प्रार्थना स्वीकार करके पुनः श्रीमालनगर आये वहाँ महाराज का नगर प्रवेश अभूतपूर्व रीति से हुआ । आषाढ़ सुदि दशमी के दिन उन्हीं सेठजी के समवसरण की प्रतिष्ठा तथा श्री शान्तिनाथ भगवान् की स्थापना की गई और जाबालीपुर में देव - मन्दिर रचना प्रारम्भ करवाई । जाबालीपुर में ही सं० १२७९ माघ सुदि ५ पंचमी के दिन अर्हत गण और विवेकश्री गणिनी, शीलमाला गणिनी, चन्द्रमाला गणिनी एवं विनयमाल गणिनी को संयम प्रदान किया।
वहाँ से पुनः श्रीमालपुर में आकर सं० १२८० माघ सुदि १२ को शान्तिनाथ भगवान् के मन्दिर पर ध्वजा का आरोपण किया और ऋषभदेव स्वामी, श्री गौतमस्वामी, श्री जिनपतिसूरि, मेघनाद
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड
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