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________________ (प्रकाशकीय प्राकृत भारती अकादमी एवं एम०एस०पी०जी० चेरिटेबल ट्रस्ट एवं अन्य संयुक्त प्रकाशकों द्वारा खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास ग्रन्थ का सुन्दरतम प्रकाशन पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें हर्ष हो रहा है। जैन धर्म के अभ्युदय और विकास में विविध गच्छों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इसी कारण प्राकृत भारती अकादमी की प्रकाशन योजनाओं में गच्छों के इतिहास का कार्य आरम्भ किया गया था। तपागच्छ और अंचलगच्छ के पश्चात् अब शृंखला की संभवतः सबसे प्राचीन व महत्वपूर्ण कड़ी खरतरगच्छ का बृहद इतिहास की योजना का प्रथम चरण सम्पूर्ण हुआ है। भगवान् महावीर की परम्परा के जिस अंग को हम खरतरगच्छ के नाम से जानते हैं वास्तव में उसका प्रादुर्भाव १०६६ से १०७२ के बीच किसी समय सुविहित शाखा के रूप में हुआ था। पाटण नरेश दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासी परम्परा के प्रमुख आचार्य सूराचार्य से वर्धमानसूरि के निर्देश पर जिनेश्वर सूरि ने शास्त्रार्थ किया और इन्हें पराजित किया। चैत्यवास के शिथिलाचार पर आगम सम्मत विशुद्ध आचार के पालन करने वाले समुदाय की विजय के साथ सुविहित शाखा स्थापित हुई। दुर्लभराज द्वारा दिया गया विरुद खरतर जनश्रुति में तो आ गया था पर यह शाखा उस समय सुविहित नाम से ही जानी जाती थी। कालान्तर में सुविहित-विधि पक्ष नाम से प्रसिद्ध इस शाखा ने लोकश्रुति के अनुसार खरतरगच्छ विरुद अपना लिया। खरतरगच्छ आज के विद्यमान व जीवन्त गच्छों में सबसे प्राचीन है। इसके मनीषी, आचार्यों और श्रमण-श्रमणियों ने हमारी धार्मिक व सांस्कृतिक परम्परा को अक्षुण्ण रखा है और समय-समय पर अपने महत्वपूर्ण योगदान से समृद्ध किया है। जिनशासन की प्रभावना के महती कार्य में भी पिछली सहस्त्राब्दि में खरतरगच्छ का योगदान अतुलनीय है। देश के कोने-कोने में खरतरगच्छ द्वारा स्थापित १५०० से अधिक दादाबाडियाँ आज भी विद्यमान हैं, जीवन्त हैं और इस गच्छ द्वारा जैन धर्म के प्रचार प्रसार की कहानी कह रही हैं। आगम व अन्य साहित्य के क्षेत्र में नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरि के प्रति कृतज्ञता जैन धर्म की परवर्ती सभी आम्नाओं के मनीषी नि:संकोच उन्हें आप्त पुरुष मानकर प्रकट करते रहे हैं। खरतरगच्छ के अन्य अनेक विविध विषयों के विद्वानों के कार्यों में साहित्य व संस्कृति का कोई भी आयाम अछूता रह गया हो ऐसा नहीं लगता। साहित्य रचना के अतिरिक्त, आने वाली पीढियों का ध्यान रखते हुए ग्रंथ भंडारों की स्थापना और उसके लिए ग्रन्थों के प्रतिलिपिकरण की जो अनूठी परिपाटी इस गच्छ ने स्थापित और परिपुष्ट की उसका आज भी दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। खरतरगच्छ के साहित्य सेवियों की एक अन्य विशेषता यह रही कि उन्होंने मात्र जैन साहित्य के क्षेत्र तक अपने आपको सीमित नहीं रखा अपितु जैनेतर साहित्य पर भी उतनी ही रुचि और लगन से काम किया। इस प्रकार यह स्वीकार करने में किसी को कोई हिचक नहीं है कि खरतरगच्छ के विद्वानों ने जैन संस्कृति मात्र को नहीं मानव संस्कृति को भी अपनी साहित्य सेवा से समृद्ध किया है। खरतरगच्छ का एक अन्य महत्वपूर्ण योगदान सामाजिक संरचना को सुदृढ़ करने के क्षेत्र में रहा है। ऐतिहासिक युग में सर्वप्रथम दादागुरु जिनदत्तसूरि ने गोत्रों की स्थापना कर श्वेताम्बर समाज को एक व्यवस्थित ___Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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