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के अत्यन्त आग्रह से वहाँ आपने सं० १९७२ पौष सुदि १५ को आचार्य पद स्वीकार किया। आचार्य नाम जिनकीर्तिसूरि रखा गया, किन्तु आप जिनकृपाचन्द्रसूरि के नाम से ही प्रसिद्ध रहे । सूरिमंत्र देने के लिए बीकानेर से श्रीपूज्य श्री जिनचारित्रसूरि जी को बुलाया गया, पंचतीर्थी की रचना हुई । इसी आचार्य पदोत्सव पर आपने सुमतिसागर जी को उपाध्याय पद से विभूषित किया ।
सं० १९७३ का चातुर्मास बम्बई में हुआ । विहार मार्ग में तीन साधुओं को दीक्षा दी। सूरत वाली कमलाबाई की विनती से बुहारी चातुर्मास कर वासुपूज्य जिनालय में प्रतिष्ठा करवाई। तीन दीक्षाएँ हुईं। सूरत के सेठ पानाचंद भगुभाई और कल्याणचंद छेलाभाई आदि की विनती से वहाँ शीतलबाड़ी उपाश्रय में विराजे । पानाचंद भाई ने श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार बनवाया व उद्यापन किया। श्री जयसागर जी को उपाध्याय पद और सुखसागर जी को प्रवर्तक पद से विभूषित किया। प्रेमचंद केशरीचंद ने उद्यापन किया। धम्माभाई, पानाभाई, मोतीभाई आदि ने चतुर्थ व्रत ग्रहण किया । सं० १९७५-७६ का चातुर्मास करके सं० १९७७ में बड़ौदा चौमासा किया। रतलाम वाले सेठ जी ने आकर मालवा पधारने की विनती की । आपश्री अहमदाबाद, कपड़वंज, रंभापुर, झाबुआ होते हुए रतलाम पधारे। उपधानतप के अवसर पर रतलाम नरेश सज्जनसिंह जी भी दर्शनार्थ पधारे। यहाँ पाँच साध्वियों को दीक्षित कर इन्दौर पधारे । सं० १९७९ में भगवतीसूत्र बाँचा, श्री जिनकृपाचंद्रसूरि ज्ञान भण्डार की स्थापना हुई । उपाध्याय सुमतिसागर जी को महोपाध्याय पद, राजसागर जी को वाचक पद और मणिसागर जी को पंडित पद से विभूषित किया। संघ सहित मांडवगढ़ की यात्रा कर भोपावर, राजगढ़, खाचरोद, सेमलिया होते हुए सैलाना पधारे। सैलाना नरेश आपके उपदेशों से बड़े प्रभावित हुए। फिर प्रतापगढ़ होते हुए मंदसौर आकर सं० १९८० का चातुर्मास किया । वहाँ से नीमच, नींबाहेड़ा, चित्तौड़, करहेड़ा पार्श्वनाथ, देवलवाड़ा होकर उदयपुर पधारे। कलकत्ता वाले बाबू चंपालाल प्यारेलाल के संघ सहित श्री केशरिया जी की यात्रा की ।
२५ ठाणा से उदयपुर में सं० १९८१ का चातुर्मास पूर्ण करके राणकपुर पंचतीर्थी करते हुए जालौर होकर बालोतरा पधारे । सं० १९८२ का चातुर्मास पूर्ण कर नाकोड़ा जी यात्रा की। साधुओं का विहार न होने से मारवाड़ के लोग धर्म विमुख हो गए थे, आपने बाड़मेर में एक दिन में ४०० मुँहपत्तियाँ तुड़वाकर जिनप्रतिमा के प्रति आस्थावान बनाया । सं० १९८३ में जैसलमेर संघ में चातुर्मास किया। श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार के ताड़पत्रीय ग्रन्थों का जीर्णोद्धार कराया। कई ग्रन्थों की नकलें व प्रेस कापियाँ करवाईं। सं० १९८४ का चातुर्मास फलौदी में करके माघ सुदि ५ को बीकानेर पधारे । बीकानेर में तीन चातुर्मास कर दीक्षायें दी व प्रेमचंद जी खजांची ने उपधान करवाया। सं० १९८७ के अनन्तर आप सूरत वाले श्री फतेचंद प्रेमचंद की विनती से पालीताणा पधारे। सं० १९९४ माघ सुदि ११ के दिन आप स्वर्गवासी हुए। उस समय आपका साधु-साध्वी समुदाय ७० के लगभग था । आपके उपदेश से इन्दौर, सूरत, बीकानेर आदि में ज्ञान भंडार, पाठशालाएँ, कन्याशालाएँ खुलीं । कल्याणभवन, चाँदभवन आदि धर्मशालाएँ तथा जिनदत्तसूरि ब्रह्मचार्यश्रम आदि संस्थाओं के स्थापना में आपका उपदेश मुख्य था । आपने कल्पसूत्रटीका, द्वादशपर्वव्याख्यान के हिन्दी अनुवाद व कृपाविनोद
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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