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हरा कर धन्यवाद प्राप्त किये तथा महाराज के चरण-कमलों में भ्रमरवत् अनुरक्त थे। ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया के दिन बड़े विधि-विधान के साथ पार्श्वनाथ स्वामी के मन्दिर के शिखर पर स्वर्ण का बना हुआ ध्वजा-कलश आरोपित किया गया। उसी महोत्सव के शुभ अवसर पर दुसाझ साढल श्रावक की ताऊ नामक पुत्री ने ५०० मोहरें देकर माला पहनी। आचार्यजी ने धर्मसागर गणि और धर्मरुचि गणि को व्रती बनाया। कन्यानयन के विधि-चैत्यालय में आषाढ़ महीने में विक्रमपुरवासी गृहस्थावस्था के सम्बन्ध से श्री जिनपतिसूरि जी के चाचा साह मानदेवकारित श्री महावीर भगवान् की प्रतिमा स्थापित की। व्याघ्रपुर में पार्श्वदेव गणि को दीक्षा दी। सं० १२३४ में फलवद्धिका (फलौदी, मेड़ता रोड़) के विधिचैत्य में पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा स्थापित की। लोक-यात्रा आदि व्यवहार में दक्ष श्री जिनमत गणि को उपाध्याय पद प्रदान किया। यद्यपि जिनमत गणि के लोकोत्तर असाधारण गुणों को देखकर उन्हें आचार्य पद दिया जाना था, परन्तु अपने निज के धर्मध्यान और शास्त्र-ज्ञान के मनन में हानि की संभावना से इन्होंने आचार्य पद स्वीकार नहीं किया। आचार्य को सारे गच्छ की देखभाल करनी पड़ती है। अतः समयाभाव के कारण धर्मध्यान और शास्त्राभ्यास होना अति कठिन है। इसी प्रकार गुणश्री नामक साध्वी को महत्तरा का पद दिया गया। वहीं पर श्री सर्वदेवाचार्य और जयदेवी नाम की साध्वी को दीक्षा दी गई। सं० १२३५ में महाराज श्री का चातुर्मास अजमेर में हुआ। वहाँ पर श्री जिनदत्तसूरि जी के पुराने स्तूप का जीर्णोद्धार करवाकर उसका विशाल आकार वाला बनवाया। देवप्रभ और उसकी माता चरणमति को दीक्षा देकर शान्ति प्रधान जैन धर्म की छत्र छाया में आश्रय दिया। अजमेर में ही सं० १२३६ में सेठ पासट की बनवाई हुई महावीर मूर्ति की स्थापना की। अम्बिका के शिखर की भी प्रतिष्ठा करवाई। वहाँ से जाकर सागरपाड़े में भी अम्बिकाशिखर की स्थापना की। सं० १२३७ में बब्बेरक गाँव में जिनरथ को वाचनाचार्य का पद दिया। सं० १२३८ में आशिका में आये और वहाँ दो बड़ी जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की।
४८. सूरि महाराज सं० १२३९ में फलवर्द्धिका (फलौदी) आये और वहाँ पर श्रावकों की भक्ति और महाराज श्री का प्रभाव देखकर नट-भट-विदों की संगत में रहने वाले, वृथा अभिमानी, उपकेशगच्छीय पद्मप्रभाचार्य मत्सर वश, ईर्ष्यावश या अज्ञान से, बहुत धनी श्रावकों के घमण्ड से अथवा कुकर्म विपाक से महाराज श्री के विहार किये बाद पीछे से भाटों के द्वारा इस बात का प्रचार कराने लगा कि पद्मप्रभाचार्य ने जिनपतिसूरि को हरा दिया।
जिनपतिसूरि जी के भक्त श्रावकों ने जब यह मिथ्या संवाद सुना तो उन्हें बड़ा रोष आया। वे सब मिलकर पद्मप्रभाचार्य के पास गए और बोले- पद्मप्रभाचार्य महाशय! आप बड़े मिथ्याभाषी हैं। आप पाप से नहीं डरते? आपने जिनपतिसूरि जी को किस समय और कहाँ पराजित किया था? झूठमूठ ही भाटों से अपनी विरुदावली पढ़वाते हो?
इनका कथन सुनकर पद्मप्रभाचार्य बोले-यदि आप लोग इस बात को मिथ्या समझते हैं, तो आप अपने गुरु जी को फिर बुला लीजिए। मैं फिर उन्हें जीतने को तैयार हूँ।
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संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04
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