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वे बोले-राजन्! यह बात एकदम सत्य है। इसमें हँसी नहीं है।
राजा ने पूछा-कहाँ और किस प्रकार उनका शास्त्रार्थ हुआ? उन्होंने प्रसन्नचित्त से शहर के दरवाजे के पास जो जिस प्रकार सारी जनता के समक्ष चर्चा-वार्ता हुई वह सारी कह सुनाई।
सुनकर राजा जी कहने लगे-“पुरुषार्थ प्राणियों के समस्त सम्पत्तियों का हेतु है। इस विषय में बड़ेपन और छोटेपन का कोई मूल्य नहीं है। मैंने उनकी आकृति देख कर उसी दिन जान लिया था, इनके आगे दिगम्बर हो या और कोई विद्वान, ठहर नहीं सकता।" इस प्रकार राजा ने भरी सभा में जिनपतिसूरि जी की अधिकाधिक प्रशंसा की।
इसी वर्ष फाल्गुन शुक्ला तृतीया के दिन देवमन्दिर में श्री पार्श्वनाथ प्रतिमा की स्थापना करके पूज्यश्री सागरपाट पधारे और वहाँ देवकुलिका की प्रतिष्ठा की।
४७. सूरीश्वर जी वहाँ से सं० १२२९ में धनपाली पहुंचे और वहाँ पर श्री संभवनाथ स्वामी की प्रतिमा की स्थापना और शिखर की प्रतिष्ठा की। सागरपाट में पंडित मणिभद्र के पट्ट पर विनयभद्र को वाचनाचार्य का पद दिया। सं० १२३० में विक्रमपुर से विहार करके स्थिरदेव, यशोधर, श्रीचंद्र और अभयमति, जयमति, आसमति, श्रीदेवी आदि साधु-साध्वियों को दीक्षा देकर संयमी बनाया। संवत् १२३२ में पुनः विक्रमपुर आकर फाल्गुन सुदि १० को भांडागारिक गुणचन्द्र गणि स्मारक-स्तूप की प्रतिष्ठा की।
उपर्युक्त वर्ष में ही श्रावकों के आग्रह से देवमन्दिर की प्रतिष्ठा करवाने के लिए जिनपतिसूरि जी महाराज फिर आशिका नगरी आये। उस समय आशिका का वैभव देखने ही योग्य था। नगरी के बाहर राजा भीम सिंह को प्रसन्न करने के लिये आने वाले अधीनवर्ती राजाओं के तम्बू लगे हुये थे। एक और राजकीय फौज-पल्टनों जमघट लगा हुआ था। राजकीय महल, प्रासादादि एवं बागबगीचों के मनोहर दृश्य देखने से आशिका नगरी चक्रवर्ती की राजधानी सी लगती थी। वहाँ पर पार्श्वनाथ मन्दिर तथा शिखर पर चढ़ाये जाने वाले सुवर्णमय-ध्वज कलश महोत्सव पर नाना देशों से आये हुए दर्शनार्थी यात्रियों का अधिकाधिक जमघट हो रहा था। महाराज के साथ विक्रमपुर से भी हजारों श्रावक आये थे। सूरिजी महाराज चतुर्दश विद्याओं के विशेष रूप से जानकार थे और बुद्धि में बृहस्पति के समान थे। इन महाराज का उपदेश मुनियों के मनरूपी कमल को विकसित करने में सूर्यमंडल के समान था।
महाराज का नगर प्रवेश बड़े समारोह के साथ किया गया। प्रवेश के समय शंख, भेरी आदि नाना प्रकार के बाजे बज रहे थे। अनेक लोग आदरपूर्वक सहर्ष महाराज के दीर्घायुष्य के हेतु वारणा कर रहे थे। नृत्य और गायन हो रहा था। युगप्रधान गुरुओं के नामोच्चारण के साथ स्तुतिगान करने वाले गंधों को दिये जाने वाले द्रव्य से कुबेर का धनाभिमान विदीर्ण हो रहा था। वैसे ही अपने पूर्वजों के नाम सुन-सुन कर लोगों को अत्यधिक आनन्द आ रहा था। हजारों आदमी पूज्यश्री के पीछे चल रहे थे। इस प्रकार महान् सम्मान के साथ श्रीमान् पूज्य आचार्य जी का नगर प्रवेश हुआ। उस समय महाराज के साथ ८० साधु थे। सभी साधु लब्धिधारी जैसे शास्त्रार्थ में अनेकों विद्वानों को
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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