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________________ (सारा काम ही चौपट हो गया)।" देवभद्राचार्य के हृदय में यह बात आई कि-"श्री जिनवल्लभसूरि जी युगप्रधान थे। उनके स्थान पर किसी वैसे ही योग्य को नहीं बैठाया गया तो हमारी गुरु भक्ति का क्या मूल्य है? हमारे गच्छ में उनके पाट पर बैठने योग्य कौन है?" ऐसा विचार करते हुये उनका लक्ष्य पण्डित सोमचन्द्र गणि की तरफ गया। उपासक वर्ग भी इन्हीं को चाहते हैं और यह ज्ञानध्यान-क्रिया में भी निपुण है, इसलिए यही योग्य है। सर्वसम्मति से इसका निर्णय करके सोमचन्द्र को लिखा गया कि-"तुमको श्री जिनवल्लभसूरि के पाट पर स्थापित किया जाएगा इसलिए जहाँ तक हो सके शीघ्र ही चित्तौड़ चले आओ।" स्वर्गीय आचार्य को भी यह बात अभीष्ट थी। श्री जिनवल्लभसूरि के पाट महोत्सव पर तुम बुलाने पर भी नहीं पहुँच सके थे। ऐसा न हो कि इस समय भी तुम लापरवाही कर जाओ। पाट पर बैठने के लिए बहुत से उम्मीदवार खड़े हुए थे (परन्तु संघ के संचालक देवभद्राचार्य ने उनकी आशालताओं पर तुषारपात कर दिया)। पत्र पहँचते ही पण्डित सोमचन्द्र गणि शीघ्र विहार कर चित्तौड़ आ गये और देवभद्राचार्य भी आ गये। समाज को पाट महोत्सव की सूचना दी गई अतः साधारण जनता केवल इतना ही जानती थी कि श्री जिनवल्लभसूरि जी के पट्ट पर किसी योग्य व्यक्ति को सूरि पद दिया जायगा। यह पद किसको और कब दिया जायगा? इस बात का किसी को पता नहीं था। श्री देवभद्रसूरि ने सोमचन्द्र गणि को एकान्त में बुलाकर कहा-"श्री जिनवल्लभसूरि जी से प्रतिष्ठित, साधारण, साधु आदि श्रावकों से पूजित श्री महावीर स्वामी के विधि चैत्य में समस्त संघ के समक्ष आगामी दिन श्री जिनवल्लभसूरि के पाट पर हम तुमको स्थापित करेंगे। लग्न का निश्चय कर लिया गया है।" इस कथन को सुनकर पण्डित सोमचन्द्र गणि ने कहा-"आपने जो कहा सो ठीक है, पर मेरी प्रार्थना यह है कि कल के दिन स्थापना कीजियेगा तो योग ऐसा है जिससे मैं अधिक दिन तक जीवित नहीं रह सकूँगा। इसलिए आज से सातवें दिन शनिवार को जो लग्न है, उस लग्न में यदि मैं पाट पर बैठाया जाऊँगा तो मैं निर्भय होकर सर्वत्र ही विचरूँगा और श्री जिनवल्लभसूरि जी के अभिमत मार्ग में मेरे द्वारा चतुर्विध संघ की अधिकाधिक वृद्धि हो सकेगी।" श्री देवभद्राचार्य ने कहा-"बहुत अच्छा, वह लग्न क्या दूर है? उस दिन ही सही।" निश्चित दिन आने पर वि०सं० ११६९ वैशाख सुदि प्रतिपदा को सायं काल के समय श्री जिनवल्लभसूरि जी के पाट पर बड़े आरोह-समारोह के साथ पण्डित सोमचन्द्र गणि स्थापित किये गये और श्री संघ की ओर से नाम परिवर्तन कर इनका नाम श्री जिनदत्तसूरि रखा गया। पद स्थापना विधि के अनन्तर बाजे-गाजे के साथ निवास स्थान पर आये। सभी साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाओं ने विधिपूर्वक वन्दना की। इसके पश्चात् श्री देवभद्राचार्य ने द्वादशावर्त वंदना कर कहा"महाराज! यहाँ पर उपस्थित सब लोगों की आपके मुखारविंद से उपदेशामृत पान करने की अभिलाषा है, देशना दीजिये।" इस प्रार्थना को स्वीकार करके आचार्य श्री जिनदत्तसूरि जी ने अमृत के समान कर्णप्रिय सिद्धान्तोदाहरणों से युक्त देशना दी, जिसे सुन कर उपस्थित जनता अतीव प्रमुदित हुई और कहने लगी-" देवभद्राचार्य को धन्यवाद है कि जिन्होंने सुपात्रों के स्थान में सुपात्र को ही पदारूढ़ किया और स्वर्गीय आचार्य जिनवल्लभसूरि जी ने इस लोक को त्यागते समय जो कहा था कि (४२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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