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जिनवल्लभसूरि सिद्धान्त, कर्म, गुणस्थान आदि विषयों के मर्मज्ञ विद्वान् थे। सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार (सार्धशतक), आगमिकवस्तुविचारसार (षडशीति) और पिण्डविशुद्धि आदि ग्रन्थ इसके साक्ष्य हैं। इनके स्वर्गवास के ३ वर्ष बाद से ही उस समय के अन्य गच्छों के धुरन्धर और प्रौढ़ विद्वानों ने इनकी विभिन्न कृतियों पर टीका रचकर इनको प्रामाणिक विद्वान् माना है। ऐसे टीकाकारों में धनेश्वराचार्य, हरिभद्राचार्य, मलयगिरि, श्रीचन्द्रसूरि, उदयसिंहसूरि, मुनिचन्द्रसूरि, महेश्वरसूरि, चक्रेश्वरसूरि, यशोभद्रसूरि, यशोदेवसूरि, अजितदेवसूरि, संवेगदेवगणि, कनककुशल आदि अन्य गच्छीय एवं खरतरगच्छीय जिनपतिसूरि, जिनपालोपाध्याय, रामदेवगणि, पुण्यसागरोपाध्याय, साधुसोमोपाध्याय, मेरुसुन्दर उपा०, चारित्रवर्धन उपा०, समयसुन्दर उपा०, गुणविनय उपा० आदि पचासों विद्वानों ने इनके सैद्धांतिक साहित्य, औपदेशिक साहित्य और स्तोत्र साहित्य पर टीकायें रचकर इनकी सार्वभौमिकता को स्वीकार किया है। जैन साहित्य में जिनवल्लभ जैसा असाधारण विद्वान् शायद ही कोई हो कि जिनके ग्रन्थों पर इतने अधिक विद्वानों ने अपनी लेखनी चलायी हो और सम्मान के साथ जिनको स्मरण किया हो।
विधिमार्गीय जिनवल्लभसूरि को नवाङ्ग टीकाकार आचार्य अभयदेव का शिष्य मानने पर 'हम खरतरगच्छ के उपजीव्य न हो जायें', इसको ध्यान में रखते हुए १७वीं शताब्दी से ही कुछ परम्परावादी विद्वानों ने इनके विरुद्ध विषवमन करना प्रारम्भ कर दिया। ऐसे विद्वानों में सर्वप्रथम धर्मसागर उपाध्याय का उल्लेख किया जा सकता है। धर्मसागर जी ने अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा और विद्वत्ता का उपयोग दुराग्रह, कलह-प्रेम और छिन्द्रान्वेषण में ही किया, जिसके कारण तत्कालीन गणनायकों-विजयदानसूरि और हीरविजयसूरि द्वारा उन्हें गच्छ बहिष्कृत किया गया और उनके उत्सूत्र प्ररूपणामय ग्रन्थों को जलशरण करवाना पड़ा। २० वीं शती में आनन्दसागरसूरि, आदि विद्वानों ने पुनः धर्मसागर जी के चरणचिह्नों पर चलना प्रारम्भ कर जिनवल्लभसूरि के विषय में विभिन्न विवाद उठायें हैं जो इस प्रकार हैं१. जिनवल्लभसूरि ने आचार्य अभयदेव के पास उपसम्पदा ग्रहण नहीं की थी। २. षट्कल्याणक की प्ररूपणा उनकी उत्सूत्र प्ररूपणा थी। ३. उत्सूत्र प्ररूपणा के कारण वे संघ-बहिष्कृत थे। ४. पिण्डविशुद्धि और सैद्धान्तिक ग्रन्थों के प्रणेता जिनवल्लभ नामक दूसरे आचार्य थे।
इनका संक्षिप्त उत्तर निम्नलिखित है१. उपसम्पदा :- जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि जिनवल्लभसूरि मूल में कूर्चपुरीय चैत्यवासी जिनेश्वराचार्य के शिष्य थे और आचार्य अभयदेव से सैद्धान्तिक वाचना प्राप्त कर सुविहित साधुओं के आचार-व्यवहार को समझ कर चैत्यवास त्याग कर अभयदेव के पास उन्होंने उपसम्पदा ग्रहण की थी। इस बात को न केवल खरतरगच्छीय अपितु अन्य गच्छीय विद्वानों जिनमें तपागच्छीय विद्वान् भी सम्मिलित हैं, ने भी अपने-अपने ग्रन्थों में स्वीकार किया है।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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