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________________ देने वाले श्लोक तथा उनका भवार्थ यहां दिया जाता है सुमेरौ निर्मेरैरपि सपदि जग्मे तरुवरैटुंगव्या दिव्यन्ते सलिलनिधौ चिन्तामणिगणैः। (?) कलौ काले वीक्ष्यानवधिमभितो याचकगणं न तस्थौ के नाऽपि स्थिरमभयचन्द्रस्तु विजयी॥ धैर्यं ते स विलोकतानभय! यः शैलेन्द्रधैर्योत्मना, गाम्भीर्यं स तवेक्षतां जलनिधेर्गाम्भीर्यमिच्छुश्च यः। भक्तिं देवगुरौ स पश्यतु तव श्रीश्रेणिकं य स्तुते, यात्रां तीर्थपतेः स वेत्तु भवतो यः सांप्रती ज्ञीप्सति॥ [कलियुग में चारों तरफ अनगनित याचकों की फौज को देखकर कल्पद्रुम भागकर सुमेरु पहाड़ पर चले गए। कामधेनु देवलोक में और चिन्तामणि समुद्र में, इस तरह सभी अपने-अपने स्थान पहुँच गए। याचकों की अधिकता को देखकर सब की स्थिरता जाती रही। परन्तु हमें इस बात को प्रकाशित करते हुए महान् हर्ष होता है कि दानवीर अभयचन्द्र सदा विजयी हैं यानि उसकी स्थिरता ज्यों की त्यों रही।] __ "अभयचन्द्र ! जो मनुष्य धैर्य गुण से पर्वतों के इन्द्र-मेरु को जानना चाहता हो, वह तुम्हारे धैर्य गुण को देखे, जो समुद्र की गंभीरता (गहराई) को जानना चाहे वह तुम्हारी गंभीरता को देखे, जो भक्ति गुण से परिपूर्ण राजा श्रेणिक को जानना चाहे वह देव व गुरु के प्रति तुम्हारी अनन्य साधारण भक्ति को देखे और जो सम्प्रति राजा द्वारा की हुई तीर्थपति शत्रुजयादि तीर्थों की यात्रा का वृत्तान्त जानना चाहता हो वह तुम्हारे द्वारा की हुई तीर्थ यात्रा के वृत्तान्त को यथावत् समझे।") इसके बाद सं० १३२८ वैशाख सुदि चतुर्दशी के दिन जालौर में सेठ क्षेमसिंह ने श्री चन्द्रप्रभ स्वामी के बड़ी मूर्ति की, महं० पूर्णसिंह ने ऋषभदेव की और महं० ब्रह्मदेव ने श्री महावीर प्रतिमा की प्रतिष्ठा का महोत्सव किया। ज्येष्ठ वदि ४ को हेमप्रभा को साध्वी बनाया। सं० १३३० वैशाख वदि ६ को प्रबोधमूर्ति गणि को वाचनाचार्य का पद और कल्याणऋद्धि गणिनी को प्रवर्तिनी का पद दिया। तदनन्तर वैशाख वदि अष्टमी को सुवर्णगिरि में श्री चन्द्रप्रभु स्वामी की बड़ी प्रतिमा की स्थापना चैत्य के शिखर में की। ____७०. इस प्रकार प्रतिदिन संसारगत प्राणि मात्र के चित्त को चमत्कृत करने वाले अनेक सच्चरित्रों को करते हुए, श्री महावीर शासन की प्रभावना को बढ़ाते हुए, बढ़ती हुई आपदाओं की तरंगों से भयानक-संसार रूपी महासमुद्र में डूबते हुए प्राणी समूह को बचाते हुए, समस्त प्राणियों के मन में उत्पन्न होने वाले अनेकविध मनोरथों को कल्पवृक्ष की तरह पूर्ण करते हुए, अपनी वाक्पटुता से देवगुरु बृहस्पति को पराजित करने वाले, लोकोत्तर ज्ञानधन के भंडार, जावालीपुर (जालौर) में स्थित प्रभु श्री जिने श्ररसूरि जी महाराज ने अपना मृत्युकाल निकट आया जानकर समस्त संघ के सामने (१३४) Jain Education International 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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