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ने एक सौ सत्तर रुपये में कपर्दियक्ष की माला पहनी। इस प्रकार सब मिलाकर तीर्थ के खाते में सत्रह हजार रुपये की आय हुई।
इसके बाद संघ वहाँ से चलकर उज्जयन्त महातीर्थ में पहुँचा। वहाँ पर शाह श्रीपति ने इक्कीस सौ रुपये भेंट देकर इन्द्र पद, सेठ हरिपाल के पुत्र पूर्णपाल ने छः सौ सोलह रुपये में मंत्री पद, पासू श्रावक ने दौ सौ नब्बे में प्रतिहार पद, भां० राजा के पुत्र आटा ने पांच सौ में भंडारी का पद, कां० मनोरथ ने दो सौ साठ में सारथी पद, सा० राजदेव के भतीजे भुवना ने डेढ़ सौ में पारिघिय पद, सा० राजदेव के पुत्र सलखण ने एक सौ चालीस में छड़ीवाहक पद, धनदेव ने एक सौ तेरह में छत्रधर पद, सेठ श्रीपति ने दो सौ में प्रथम चामरधारि पद और पिचासी रुपये में चतुर्थ चामरधारी पद, वै०सा० बहुगुण ने एक सौ साठ में द्वितीय चामरधारि पद और नब्बे में तृतीय चामरधारि पद, वै० हांसिल पुत्र वै० देहड़ ने पांच सौ सोलह में नेमिनाथ मुखोद्घाटन माला, सेठ अभयचन्द्र की माता तिहुअणपालही श्राविका ने एक सौ चालीस में राजीमती माला, सेठ श्रीपति की माता मोल्हा श्राविका ने पैंतीस में अम्बिका माला, पाल्हण के पुत्र देवकुमार ने एक सौ चवालीस में शांब माला, शाह अभयचंद्र के पुत्र वीरधवल ने एक सौ अस्सी में प्रद्युम्न माला, सेठ राजदेव के भाई भोला ने तीन सौ ग्यारह में कल्याण जयमाला, सेठ पासू की बहन रासल श्राविका ने दो सौ चालीस में श्री शत्रुजय ऋषभदेव माला, सेठ पासू की माता पाल्ही श्राविका ने एक सौ चौबीस में मरु देवी माला, सा० ऊदा के पुत्र भीमसिंह ने एक सौ आठ में पुण्डरीक माला, सेठ धनपाल ने अवलोकना शिखर माला तथा शाह राजदेव के भाई गुणधर के पुत्र बीजड़ ने चौबीस रुपयों में कपर्दियक्ष माला ग्रहण की। इस प्रकार मिलाकर ७०७९ रुपये हुए। इस संघ के द्वारा सब मिला कर शत्रुजय तीर्थ के देव भंडार में बीस हजार और उज्जयन्त तीर्थ के देव कोष में सत्रह हजार रुपये की आवक हुई।
श्री जिनेश्वरसूरि जी महाराज ने उज्जयन्त तीर्थ में श्रीनेमिनाथ स्वामी की मूर्ति के समक्ष ज्येष्ठ वदि ....... के दिन प्रबोधसमुद्र, विनयसमुद्र को दीक्षा दी तथा मालारोपण आदि महोत्सव किया। इसके बाद संघ देवपत्तन में गया। वहाँ पर पतियाण (पटेल) लोगों द्वारा दिए हुए राजकीय वाजित्रादि उत्तम साधन के द्वारा बड़े ही ठाठ से चतुर्विध संघ सहित श्री जिनेश्वरसूरि जी ने सकल लोगों का हित करने वाली चैत्य-परिपटी की यानि समस्त जिन मन्दिरों के दर्शन किए। ऐसा करने से सब पतियाण लोक और उनका मालिक बहुत प्रसन्न हुआ। __इस प्रकार मार्ग में स्थान-स्थान पर महाप्रभावना करने से संघ ने अपने जन्म और सामर्थ्य को सफल किया। महाराज ने भी विधिमार्गीय संघ के साथ तीर्थयात्रा निर्विघ्न समाप्त करके अपने चिर संकल्पित मनोरथ को सफल किया। सेठ अभयचन्द्र ने आषाढ़ सुदि नवमी के दिन श्री जिनेश्वरसूरि जी महाराज आदि चतुर्विध संघ सहित जंगम जिन चैत्य जो संघ के साथ में था, उसका पालनपुर नगर में बड़े ही ठाठ से ऐसा महोत्सव कराया कि जिसे देखकर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। इस प्रकार तीर्थयात्रा और नगर प्रवेश दोनों ही बृहत्कार्य श्री जिनेश्वरसूरि जी महाराज के पुण्य प्रभाव से निर्विघ्नता के साथ सम्पन्न हुए। इस प्रसंग में दानवीर व कर्मवीर सेठ अभयचन्द्र के गुणों का परिचय
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04
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