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५. अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर की संवत् १७१२ के लगभग जिनचन्द्रसूरि के राज्य काल की ६ पत्रात्मक प्रति में-"श्री राउरे फागुण वदि पाँच सं० १३८९ सूर्यस्ति।" ६. अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर की संवत् १७१२ के लगभग जिनचन्द्रसूरि के राज्य काल की १९ पत्रात्मक प्रति में-“संवत् तेरह सय निवासीय फागुण वदि पाँच तिथइ श्री देराउर स्वर्गइ प्राप्त ।" ७. अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर की संवत् १८०० वैशाख वदि दूज मरोट में लिखित ५ पत्रात्मक प्रति में-"श्री देरावर फागुण वदि ५ संवत् १३८९ दिवंगता स्तूपमस्ति ।” ८. श्री जिनहरिसागरसूरिजी संग्रह की संवत् १६१२ के लगभग की ६ पत्रात्मक प्रति में"संवत् १३८९ फागुण वदि ५ तिथौ श्री देवराजपुरे स्तूप निवेशः।" ९. श्री फूलचन्दजी झाबक, फलौदी के संग्रह की पत्र १ की प्रति में-"५४, श्री जिनकुशलसूरिछाजहड़ गोत्र (सं०) १३८९ फागुण वदि ५ देराउरे स्वर्ग पहुता।" १०. पाली खरतरगच्छ श्रीपूज्यजी के संग्रह में संवत् १५३३ के लगभग की प्रति में और संवत् १६१२ के लगभग की प्रति में-“संवत् १६८९ फागुन वदि ५ देवराजपुरे दिवं गमनम्।" ११. साहित्य मन्दिर, पालीताणा नं० ६०१ की ६ पत्रात्मक पट्टावली में-"सं० १३८९ वर्षे फागुण वदि ५ दिने श्री देराउरे स्वर्गे पहुता।"
उक्त प्रमाणों से यह अत्यन्त स्पष्ट है कि श्री जिनकुशलसूरिजी का स्वर्गवास फाल्गुन वदि पञ्चमी को हुआ था। किन्तु विक्रम संवत् १८०० के पश्चात् वदि पञ्चमी के स्थान पर वदि अमावस्या कैसे मान ली गई? यह एक शोध का विषय है। महोपाध्याय क्षमाकल्याण ने खरतरगच्छ पट्टावली, रचना संवत् १८३० में फाल्गुन वदि अमावस्या का उल्लेख किया है। इसके पश्चात् की परम्परा तो आज तक स्वर्गवास दिवस फाल्गुन वदि अमावस ही मानती आ रही है।
इनका स्वर्गवास देवराजपुर (देराउर) में हुआ था। वर्तमान में यह स्थान पाकिस्तानसिन्ध में है और सेना के अधिकार में है। अतः वहाँ एक मिट्टी के टीले के अतिरिक्त कोई भी अवशेष प्राप्त नहीं है। उस टीले की पवित्ररज प्राप्त कर जयपुर के निकट देराउर दादाबाड़ी में स्थापित की गयी है।
कहा जाता है कि भक्त की आराधना से प्रभावित होकर उन्होंने मालपुरा में सशरीर दर्शन दिया था, वहीं प्रस्तर पर अंकित चरण विद्यमान हैं और इनका प्राचीन स्थल माना जाता है।
भारत के कोने-कोने में तृतीय दादा गुरुदेव के नाम से प्रत्यक्ष प्रभावी और मनोवांछित पूर्ण करने वाले माने जाते हैं। देश के प्रत्येक दिशा में इनकी मूर्तियाँ-चरण आदि स्थापित हैं। आज भी देश भर में १५०० दादाबाड़ियाँ हैं जिनमें मुख्यतः जिनदत्तसूरि और जिनकुशलसूरि की प्रतिमायें और चरणचिह्न स्थापित हैं और आज भी पूज्य हैं।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04
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