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आचार्य जिनचन्द्रसूरि का निधन हो गया। गच्छनायक आचार्य के निधन के पश्चात् गच्छ के ज्येष्ठ मुनिजनों, साध्वियों एवं श्रावकों ने एक सभा आयोजित कर स्वर्गीय आचार्य के पूर्व आदेशानुसार गणि कुशलकीर्ति को पाटन में जिनकुशलसूरि के नाम से उनके पट्ट पर आसीन कराया।
___ आचार्य जिनकुशलसूरि ने वि०सं० १३८१ वैशाख वदि ६ को पाटन में धर्मसुन्दरी और चारित्रसुन्दरी को साध्वी दीक्षा दी। वि०सं० १३८३ वैशाख वदि ५ को कमलश्री और ललितश्री की दीक्षा हुई।
वि०सं० १३८६ को देवराजपुर में कुलधर्मा, विनयधर्मा और शीलधर्मा ने साध्वी दीक्षा ग्रहण की। इसी नगरी में वि०सं० १३८८ में जयश्री और धर्मश्री को क्षुल्लिका दीक्षा दी गई। इस प्रकार स्पष्ट है कि खरतरगच्छ में इस समय भी साध्वियों की बड़ी संख्या थी। वि०सं० १३८९ फाल्गुन वदि ५ को आचार्य श्री जिनकुशलसूरि का स्वर्गवास हुआ।
दिवंगत आचार्य जिनकुशलसूरि के पूर्व आदेशानुसार क्षुल्लक पद्ममूर्ति को जिनपद्मसूरि नाम से वि०सं० १३९० ज्येष्ठ सुदि ६ को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। यह पट्टमहोत्सव देवराजपुर स्थित विधिचैत्य में स्वगच्छीय साधु-साध्वियों तथा समाज के स्वपक्षीय श्रावकों के समक्ष बड़े धूमधाम से सम्पन्न हुआ। ___ आचार्य जिनपद्मसूरि ने वि०सं० १३९१ पौष वदि १० को लक्ष्मीमाला नामक गणिनी को प्रवर्तिनी के पद पर प्रतिष्ठित किया।° वि०सं० १३९४ चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को आप १५ मुनियों तथा जयद्धि महत्तरा आदि ८ साध्वियों और कुछ श्रावकों के साथ अर्बुदतीर्थ की यात्रा पर गए।१ जिनपद्मसूरि द्वारा किसी महिला को साध्वी दीक्षा देने का उल्लेख नहीं मिलता। वि०सं० १४०४ वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को अल्पायु में ही इनका दुःखद निधन हो गया।१२
बाद की शताब्दियों में भी खरतरगच्छ में साध्वियों की पर्याप्त संख्या रही। नाहटाजी द्वारा संकलित और सम्पादित "बीकानेरजैनलेखसंग्रह" में भी १८ साध्वियों का उल्लेख मिलता है।३ अन्य लेख संग्रहों में भी खोजने पर कई साध्वियों के नाम मिल सकते हैं।
खरतरगच्छीय श्रमणीसंघ में यद्यपि बड़ी संख्या में साध्वियाँ थीं, परन्तु उन्होंने स्वयं को धार्मिक अनुष्ठानों तक ही सीमित रखा। जहाँ इस गच्छ में अनेक साहित्योपासक मुनि हो चुके हैं, वहीं
१. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ० ६८ ३. वही, पृ० ७७ ५. वही, पृ० ८२ ७. वही, पृ० ८५ ९. वही, पृ० ८६ ११-१२. वही, पृ० १७७
२. वही, पृ० ७० ४. वही, पृ० ८० ६. वही, पृ० ७५ ८. वही, पृ० ८५ १०. वही, पृ० ८७ १३. द्रष्टव्य-परिशिष्ट-च, पृ० ३८
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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