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राज्य के भार को वहन करने वाले महाराजकुमार श्री अरिसिंह जी की उपस्थिति से और विशेषता आ गई थी। इन सभी महोत्सवों में धन तो पंचायत की ओर से खर्च किया गया था, परन्तु सोनी सेठ धांधलजी और उनके पुत्र बाहड़ ने अपना द्रव्य खर्च के साथ पूर्ण परिश्रम करके उत्सव को पूर्ण सफल बनाया था। - इसके बाद पूज्यश्री बद्रदहा गाँव में पधारे। वहाँ पर जिसकी प्रतिष्ठा कभी श्री जिनदत्तसूरि जी महाराज ने करवाई थी, उसी पार्श्वनाथ विधिचैत्य का महण, झांझण आदि पुत्रों के साथ सेठ आह्लाक ने जीर्णोद्धार करवा कर उस पर चित्तौड़ में प्रतिष्ठित ध्वज-दण्ड का आरोपण फाल्गुन सुदि चतुर्दशी को विस्तार से करवाया। महाराज वहाँ से जाहेड़ा गाँव में गये। वहाँ पर सेठ कुमार आदि अपने कुटम्बियों के साथ सोमल श्रावक ने चैत्र सुदि तेरस के दिन सम्यक्त्वारोपादि नन्दिमहोत्सव बड़े विस्तार से किया। इसके बाद बरडिया स्थान में वैशाख वदि ६ को श्री पुण्डरीक स्वामी, श्री गौतमस्वामी, प्रद्युम्नमुनि, जिनवल्लभसूरि, श्री जिनदत्तसूरि, जिनेश्वरसूरि और सरस्वती देवी की मूर्तियों की जलयात्रा महोत्सव के साथ निर्विघ्नता से प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न किया गया। वैशाख वदि सप्तमी को मोहविजय तथा मुनिवल्लभ को दीक्षा दी और हेमप्रभ गणि को वाचनाचार्य पद दिया।
७५. सं० १३३६ जेठ सुदि नवमी को युगप्रधान श्री आर्यरक्षितसूरि के चरित्र को याद करते हुये पूज्यश्री ने अपने पिता सेठ श्रीचन्द का अन्त समय जानकर शीघ्रतया चित्तौड़ से चलकर पालनपुर आकर उन्हें दीक्षित किया। उस समय भाग्य से देवपत्तनीय कोमलगच्छ के बहुत से श्रावक वहाँ आ गये थे। सेठ श्रीचन्द ने धन से दीन और अनाथ लोगों के मनोरथ पूर्ण किये थे। सेठ ने दान योग्य सातों क्षेत्रों में अपने धन को देकर अपने को सफल कर दिया था। संयम धारण के समय बारह प्रकार का नाद-निनाद हो रहा था। सेठ श्रीचन्द जी निरंतर शुद्धशील रूपी अलंकार को धारण किए हुए थे। पुण्यराग (धर्मप्रेम) रूपी अंगराग-केसरादि लेप से उनका शरीर सुवासित था। वे अनेक प्रकार के स्वाध्याय रस रूपी तांबूल से रंजित मुख वाले थे। इन पुण्यात्मा श्रीचन्द ने जिनका दीक्षित दूसरा नाम श्रीकलश रखा गया था, एक प्रकार के पुरोहित सोमदेव का चरित्र प्रगट कर दिया, क्योंकि उन्होंने भी अन्त समय में अपने पुत्र से दीक्षा धारण की थी। इन महात्मा श्रीचन्द जी ने अपने बढ़ते हुए वैराग्य से तीव्र असिधन के समान पापियों को दुष्प्राप्य साधुव्रत को धारण करके सत्रह दिनों में सत्रह प्रकार के असंयम को निर्दलित करने वाले अपूर्व चारित्र के द्वारा लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया। उन्होंने अतिचार रहित प्रत्याख्यान किये थे। नई-नई आराधना रूप अमृतपान किया था। खंभात तीर्थ आदि अनेक संघों के वन्दन निमित्त आये भक्तजनों को धर्मलाभ रूप आशीर्वाद देकर पवित्र किया था। ये साधुओं में रत्न के समान थे। दीक्षा धारण करने के कारण ये अपने कुल रूपी महल के सुवर्ण कलश हो गये थे। इन महामुनि श्रीकलश जी ने पंच परमेष्ठि महामंत्र के ध्यान को स्वर्ग में चढ़ने के लिए सोपान-श्रेणि (निसरणी) बनाकर उस पर आरूढ़ होकर स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया।
१. आरक्षितसूरि ने भी अपने पिता पुरोहित सोमदेव को अन्त समय में दीक्षा देकर संयमधारी बनाया था।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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