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इसके उत्तर में सभ्य लोगों ने कहा-आचार्य जी! ऐसी समस्याओं की पूर्ति से कोई लाभ नहीं। इसकी परस्पर में कोई संगति नहीं। यह असंगति हटाने के लिए ही हमने आपसे पूछा था किन्तु आपने तो उसी असंगति का समर्थन किया है। सरल काव्य रचना की अपेक्षा समस्या-पूर्ति में यही तो कठिनता है कि उसके असंगति दोष को हटा कर उसे संगत बनाना पड़ता है।
- पूज्यश्री ने कहा-पण्डित महानुभावों! इस प्रकार भी समस्या-पूर्ति होती है। देखिये, एक समय राजा भोज की सभा में किसी बाहर से आये हुए पण्डित ने समस्या-पूर्ति के लिए निम्नलिखित तीन चरण कहे
सा ते भवानुसुप्रीताऽवद्यचित्रकनागरैः। आकाशेन बका यान्ति। उसी समय सभा में स्थित राजकीय पण्डित ने देव! किं केन संगतम् यह चतुर्थ चरण कहकर पूर्ति कर दी। ___आचार्य का यह कथन सुनकर राजपण्डितों ने कहा-हाँ! इस तरह भी समस्या-पूर्ति हो जाती है। यदि समस्यापूरक पद्मप्रभाचार्य सदृश कोई हो तो, परन्तु काव्य-रचना की शक्ति रखने वाले आप सरीखों के लिए इस प्रकार की असंगति बिना हटाये सामान्य समस्या-पूर्ति करना शोभाजनक नहीं है। तत्पश्चात् पूज्यश्री ने क्षणभर गंभीरतापूर्वक विचार कर इस प्रकार पदों की योजना की
चकर्त दन्तद्वयमर्जुनः शरैः, कीर्त्या भवान् यः करिणो रणाङ्गणे।
दिदृक्षया यान्तमिलास्थितो हरिः, क्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः॥ [रणांगग (संग्राम के मैदान) में हाथियों के जिस दन्त द्वय (दो दाँतों) को अर्जुन ने बाणों से काटा। उसी दन्त द्वय को आपने अपनी धवल कीर्ति से काट डाला अर्थात् आपने अपनी कीर्ति की उज्ज्वलता से हाथी के दाँतों की उज्ज्वलता को पराजित कर दी है और आकाश मार्ग से जाते हुए इस (नारद) को देखने की इच्छा से भूतल पर रहे श्रीकृष्ण ने क्रमश: जाना कि यह नारद है।]
इसकी व्याख्या सुनकर आश्चर्य रस में निमग्न हुए राजपण्डितों ने कहा-आचार्य! भगवती सरस्वती की एक आप ही पर बड़ी भारी कृपा है। इसी कारण आप जिस विषय को लेते हैं, उसी में भगवती आपकी सहायता करती है। पास में बैठे हुए जिनमतोपाध्याय ने कहा-पण्डित महोदय! आचार्यजी के विषय में आप लोगों का यह कथन अक्षरशः सत्य है। इन पर यदि वाग्देवी प्रसन्न न होती, तो सरस्वती के पुत्रस्वरूप आप विद्वानों से इनकी मुलाकात कैसे होती?
पण्डितों ने पद्मप्रभाचार्य से कहा-महाशय! आप भी कुछ कहिये।
वह बोला-"आप एक क्षण ठहरिये मैं कुछ सोच रहा हूँ।" उन्होंने मखौल उड़ाते हुए कहा"छः मास तक सोचते रहिए।"
सर्व पण्डितों ने एक राय होकर कहा-सर्वप्रधान मण्डलेश्वर कैमास जी! आपने आज तक श्री जिनपतिसूरि आचार्य के समान कोई विद्वान् देखा?
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04
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