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[आपके निर्मल यशः सरोज से सारा जगत् भरा हुआ है। आप गंभीरता में समुद्र के समान हैं और आपने धीरता में अचल (पहाड़ों) को मात कर दिया है। आपने अपने प्रशंसनीय पराक्रम से अन्य नरपतियों के समुदाय को दबा दिया है। हे राजन्! आप सारे जगत् में प्रतिष्ठा पाये हुए हैं, चतुःषष्ठि कलाओं के जानकार हैं। ऐसे आप चिरकाल तक पृथ्वी का शासन करते रहें।]
___ आचार्यश्री द्वारा निर्माण किए गए इस चित्रकाव्य को पढ़कर पण्डित लोग बड़े प्रसन्न हुए। पूज्यश्री की खूब प्रशंसा करने लगे, उसे सुनकर पद्मप्रभाचार्य मन ही मन जल-भुन गया और बोला-"पण्डितवर्ग! रिश्वत में एक हजार मुद्रा मैं भी दे सकता हूँ, अतः आप लोग मेरी भी प्रशंसा करें।"
इस असत्य आक्षेप को सुनकर प्रधानमंत्री कैमास ने कहा-रे मुण्डिक! महाराज पृथ्वीराज के सामने भी जो कुछ यद्वा-तद्वा बोलता है, मालूम पड़ता है तुम कण्ठ पकड़वाने की फिक्र में हो।
यह सारा दृश्य देखकर राजा बोला-आप सभ्यों को समदृष्टि रखनी चाहिए।
कैमास आदि बोले-राजन्! ये महाशय गोरूप (वृषभ) के समान हैं, यदि वृषभ को कुछ ज्ञान हो तो इन्हें भी हो।
राजा ने कहा-इस बात का परिचय तो इसकी सूरत-शक्ल देखने से ही मिल रहा है और यह भी हम जान गये हैं कि आचार्य जी विद्वान् हैं। परन्तु, न्यायमयी हमारी सभा में किसी को पक्षपात आदि के विषय में कुछ कहने का अवसर न मिले, इस कारण सब विषयों में पद्मप्रभाचार्य की भी परीक्षा करनी योग्य है।
पण्डितों ने कहा-कृपानाथ! पद्मप्रभाचार्य को कविता करने का ज्ञान नहीं है। आचार्य रचित श्लोकों में यह छंद ही नहीं पहचानता। आचार्यश्री ने तर्क और दलीलों से (वामावर्तारात्रिक अवतारण) को सिद्ध कर दिया। उसके मुकाबले में यह कोई जवाब नहीं दे सका। अतः यह तर्कशास्त्र को बिल्कुल ही नहीं जानता है। इसे तो केवल विरुद्ध बोलना आता है। खैर, जो कुछ भी हो, आप श्रीमान् की आज्ञा से विशेष रूप से समान बर्ताव करेंगे।
राजपण्डित बोले-आचार्य जी! और पद्मप्रभाचार्य जी! आप दोनों निम्नलिखित समस्या की पूर्ति करें
चकर्त दन्तद्वयमर्जुनः शरैः, क्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः। पूज्यश्री ने तत्क्षण ही सोचकर कहा
चकर्त दन्तद्वयमर्जुनः शरैः, क्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः।
भूपालसन्दोहनिषेवितक्रम! क्षोणीपते! केन किमत्र संगतम्॥ [अर्जुन ने बाणों से दोनों दन्तों को काट डाला। उसने क्रम से इसको यह नारद है ऐसा जाना। नरेन्द्र मण्डल से सेवित पृथ्वीराज ! इन दोनों समस्याओं में किसके साथ किसका सम्बन्ध है?]
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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