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पण्डितों ने जवाब दिया- मूर्ख ! कादम्बरी आदि की कथाएँ हमारी अच्छी तरह से देखी हुई हैं। इसलिए आप चुप रहिए, अधिक टीका टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है। हमारे हाथों अपने मुँह पर धूल गिरवाने की कोशिश न करिये ।
५०. पण्डितों ने पूज्यश्री को लक्ष्य करके कहा - " अब आप प्राकृत भाषा में श्लेषालंकार द्वारा द्वयर्थक (दो अर्थ वाली ) गाथा की रचना करके पृथ्वीराज महाराज के अन्तःपुर और वीरयोद्धाओं का वर्णन करें।" पूज्यश्री ने मन ही मन मुहूर्त पर्यन्त खूब विचार करके गाथा की रचना करके इस प्रकार कह सुनाई -
वरकरवाला कुवलयपसाहणा उल्लसंतसत्तिलया । सुंदरिबिंदु व्व नरिंद! मंदिरे तुह सहंति भडा ॥
[हे राजन्! आपके महल में कमल के फूलों से श्रृंगारित सुन्दर हाथों वाली, ललाट तट पर केशर कस्तूरी के तिलक को धारण करने वाली सुन्दरियाँ विराजमान हैं और अच्छे-अच्छे खङ्गधारी, भूमण्डल के अलंकार, जिनकी शक्ति रूप लता दिनों-दिन बढ़ रही है ऐसे शूरवीर योद्धा आपके महल में सुन्दरियों के ललाट बिन्दु (तिलक) की तरह शोभायमान हैं ।] यह श्लोक द्व्यर्थक है ।
इस गाथा की व्याख्या आचार्यश्री ने बड़े विस्तार से की। पूज्य श्री का पाण्डित्यपूर्ण प्रवचन सुनकर बड़ी श्रद्धा भक्ति से उनके मुख की तरफ देखते हुए लोगों को देखकर निर्लज्ज पद्मप्रभाचाय बोला-‘“आचार्य! मेरे साथ वाद शुरू करके अब दूसरों के आगे अपने आपको भला दर्शाते हो?" पूज्यश्री ने उसी समय नन्दिनी नामक छंद में एक श्लोक बनाकर कहा
सह
पृथिवीनरेन्द्र ! समुपाददे रिपोरवरोधनेन सिन्धुरावली । भवतां समीपमनुतिष्ठतया स्वयं न हि फल्गुचेष्टितमहो! महात्मनाम्॥। [हे नरेन्द्र पृथ्वीराज ! आपने शत्रुओं के पास जाकर उनको कैद करके उनके हाथियों की कतार छीन ली। आश्चर्य है कि महापुरुषों का पुरुषार्थ कभी व्यर्थ नहीं जाता ।]
आचार्यश्री ने सभा के समक्ष इस नूतन श्लोक को सुनाकर पद्मप्रभाचार्य से पूछा कि "वह कौन से छंद का श्लोक है?" राजपण्डित बोले - " आचार्यवर! इस अज्ञानी के साथ बोलने से आपको क्लेश के सिवा और कोई लाभ नहीं है । "
इसके बाद पण्डित लोग बोले - " अब खङ्ग बन्ध नाम के चित्रकाव्य की रचना करके दिखलावें । " आचार्यश्री ने तत्क्षण ही जमीन पर रेखाकार तलवार बनाकर दो श्लोकों से उसकी पूर्ति कर दी - लसद्यशः गः सिताम्भोज ! पूर्णसम्पूर्णविष्टप ! । पयोधिसमगाम्भीर्य ! धीरिमाधरिताचल ! ॥ १ ॥ ललामविक्रमाक्रान्त लब्धप्रतिष्ठ! भूपाला - वनीमव कलामल ! ॥ २॥
परक्ष्मापालमण्डल ।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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