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________________ के बाद सं० २००८ माघ सुदि ८ को बीकानेर में सौभाग्यसकल से श्री जिनसोमप्रभसूरि नाम प्रसिद्ध हुआ। सं० २०१० ज्येष्ठ सुदि १० को बम्बई में आपने दो शिष्यों को धर नन्दि में दीक्षा दी। यद्यपि समयसुन्दर जी युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि जी के प्रशिष्य होने से भट्टारक परम्परा के थे। किन्तु भट्टारक और आचार्य शाखा का विभाजन होने पर ये अपने शिष्य वादी हर्षनन्दन के कारण जिनसागरसूरि की आज्ञा में विचरण करने लगे थे। अतः आचार्य शाखा के अनुयायी हो जाने के कारण यहाँ इनका परिचय दिया जा रहा है। (महोपाध्याय समयसुन्दर) प्रख्यात कविश्रेष्ठ महोपाध्याय समयसुन्दर जी युगप्रधान आचार्य जिनचन्द्रसूरि के प्रशिष्य एवं सकलचन्द्र गणि के शिष्य थे। आपका जन्म सांचौर में हुआ था। आपके पिता का नाम रूपसी और माता का नाम लीला देवी था। ये पोरवाड़ ज्ञाति के थे। लघुवय में ही आपने आचार्य जिनचन्द्रसूरि के पास चारित्रग्रहण किया और वाचक महिमराज और वाचक समयराज के पास विद्याध्ययन करने लगे। थोड़े ही समय में इन्होंने विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन कर लिया और गीतार्थ विद्वान् हो गये। ऐसा माना जाता है कि वि०सं० १६४० माघ सुदि ५ को इन्हें अपने विद्यागुरु महिमराज (जिनसिंहसूरि) के साथ ही गणिपद प्राप्त हुआ। वि०सं० १६४९ फाल्गुन सुदि २ को लाहौर में जब महिमराज गणि को आचार्य पद दिया गया उस समय इन्हें वाचनाचार्य पद प्रदान कर सम्मानित किया गया। वि०सं० १६७१ के अन्त या १६७२ के प्रारम्भ में आपको उपाध्याय पद प्राप्त हुआ। वि०सं० १६८० में आपको गच्छ में वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध और पर्यायवृद्ध होने के कारण महोपाध्याय पद से अलंकृत किया गया। समयसुन्दर जी द्वारा रचित ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ, तीर्थमालायें और स्तवनसाहित्य को देखने से स्पष्ट होता है कि आपका प्रवास सिन्ध, पंजाब, वर्तमान उत्तर प्रदेश का पश्चिमी भाग, राजस्थान, सौराष्ट्र, गुजरात आदि प्रान्तों के विभिन्न नगरों एवं ग्रामों में रहा है। आपके समय में ही गुजरात में १६८७ में भंयकर दुष्काल पड़ा। इसके कारण सर्वत्र त्राहि-त्राहि होने लगी। ऐसा कोई भी नहीं बचा जिसे इसकी मार न झेलनी पड़ी हो। आहार न मिलने से मुनिजनों की बड़ी विचित्र स्थिति हो गई, देवमन्दिर शून्य हो गए। अनेक साधु कालकलवित होने लगे। ऐसी अवस्था में भी कुछ साधुओं ने अकाल का लाभ उठाते हुए बहुत से बच्चों को उनके माता-पिता की अनिच्छा के बावजूद भी उन्हें दीक्षित कर अपने समुदाय की वृद्धि की। समयसुन्दर भी अकाल की मार से बच न सके, परन्तु ऐसे समय में भी उन्होंने साधु के लिए अकरणीय कार्य वस्त्र-पात्र बेचकर भी अपने शिष्य समुदाय की रक्षा की। दुर्भिक्ष समाप्त होने पर उन्होंने वि०सं० १६९१ में क्रियोद्धार कर साधु समाज के समक्ष एक आदर्श उपस्थित किया। (३०२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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