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हुआ था, तो भी शुभ-मुहूर्त देखकर सधवा श्राविकाओं से मंगल गान गाए जाते हुए, हस्त तालियों के आवाज होते हुए, तरह-तरह के सुन्दर बाजे बजते हुए, बड़े उत्साह के साथ अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी की जन्म तिथि चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन, महामहिमशाली चतुर्विध संघ सहित, जगत्पूज्य पूज्यश्री ने देवालय के साथ भीमपल्ली से प्रस्थान किया। रास्ते में जगह-जगह शुभ शकुनों से प्रोत्साहित होते हुए, तीर्थ श्रीशंखेश्वर में पहुँच कर महाप्रभावशाली श्रीजिनेश्वर भगवान् को महाविशाल संघ के साथ विधि-विधान से आपने नमस्कार किया। वहाँ पर आठ दिन ठहर कर संघ ने बड़ा भारी महोत्सव किया। इसके बाद पाटला गाँव में नेमिनाथ प्रभु के प्राचीन तीर्थ को नमस्कार करके श्री राजशेखराचार्य, जयवल्लभ गणि आदि सोलह साधु और प्रवर्तिनी बृद्धिसमृद्धि गणिनी आदि पन्द्रह साध्वियों सहित सारे संघ का भार उठाने में अग्रगण्य सेठ श्री सामल, भणशाली नरसिंह के पुत्र आसाजी तथा संघ की रक्षा के लिए जिम्मेदार, साधु सामल के कुटुम्बी दुर्लभादि, भणशाली पूर्ण जी के पुत्र रतनचन्द तथा संघ में पाश्चात्य पद को निभाने वाले, उत्तम, औदार्यशाली, भणशाली लूणा आदि सहित समस्त संघ को साथ लिए हुए पूज्यश्री प्रतिग्राम, प्रति नगर, नृत्य-गान, उपदेश आदि से जिनशासन का प्रभाव बढ़ाते हुए नि:शंकतया सुखपूर्वक क्रमशः तीर्थ के अलंकारस्वरूप एवं त्रिलोकी में सारभूत, समस्त तीर्थ-परम्परा से परिवृत, सुर-असुर-नरेन्द्रों से सेवित, श्री ऋषभदेव भगवान् की वन्दना की और उज्जयन्त तीर्थ में पहुँच कर तीर्थ के मण्डन भूत, सकल पाप का खण्डन करने वाले, सुन्दरता के खजाने, यदुवंश भूषण, कल्याण-त्रय आदि नाना तीर्थों से विराजमान श्री नेमिनाथ स्वामी की नये-नये स्तुति-स्तोत्रों की रचना करके, सब महाजनों में प्रधान, गुणनिधान सेठ देवीसिंह के पुत्र और सेठ थालण के पुत्र सेठ कुलचन्द्र तथा देदा नाम के दो श्रावकों ने अपने प्रचुर धन को सफल करने के लिए इन्द्र पद ग्रहण किया। इसी प्रकार गोठी यशोधर के पुत्र गोठी स्थिरपाल ने उज्जयन्त तीर्थ में खूब द्रव्य खर्च करके अम्बिका देवी की माला ग्रहण की। इसके अतिरिक्त सेठ श्रीचन्द्र के पुत्र सा० जाल्हण, सा० चाहड़ के पुत्र सा० झांझण, सा० उद्धरण, नोलखा गोत्रीय नेमिचन्द्र, सेठ पूना, सेठ तिहुण, भां० पद्मचन्द्र का पुत्र भऊणा, सा० महणसिंह और सेठ भीमाजी के पुत्र लूणसिंह आदि अन्य उत्तम श्रावक महानुभावों ने भी तीर्थ पूजा, संघ पूजा, स्वधार्मिक वात्सल्य के कारण किये गए अनिवारि भोजनालय आदि पुण्य कार्यों में अगणित धन व्यय करके पुण्यानुबंधी पुण्य की उपार्जना की।
इस प्रकार इस भयानक कलिकाल में भी, लोकोत्तर धर्म के निधान, स्पृहणीय पुण्यप्रधान, श्री विधि-संघ ने सब जनों के चित्त को हरने वाली तथा चमत्कार करने वाली तीर्थ-यात्रा निर्विघ्नता पूर्वक की। बड़ी प्रभावना के साथ समस्त तीर्थों की वन्दना करके सेठ सामलजी आदि संघ एवं मुनि मंडली सहित आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज आषाढ़ चातुर्मासी लगने की दिन श्री वायड़ ग्राम में आकर श्री महावीर स्वामी के जीवनकाल में बनाई हुई उनकी अलौकिक प्रतिमा का महाविस्तार (बड़े ठाठ) से वंदन किया। इसके बाद श्रावण मास के पहले पखवाड़े में प्रतिपदा के दिन धर्मभावनाशालिनी श्राविकाओं के नृत्य होते हुए, अन्य नागरिक स्त्रियों के मंगल गीत हुए, ठौर-ठौर में देखने योग्य तमाशों के होते हुए,
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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