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________________ राजपुर-कुंभलमेर होते हुए उदयपुर पधारे। मंत्रीश्वर कर्मचन्द के पुत्र लक्ष्मीचंद के पुत्र रामचन्द्र, रुघनाथ ने दादी अजायबदे के साथ वंदन किया। फिर स्वर्णगिरि होते हुए सांचौर गए। हाथीशाह ने साग्रह चातुर्मास कराया। सं० १६८६ में पारस्परिक मनोमालिन्य से दोनों शाखाएँ भिन्न-भिन्न हो गईं। जिनसागरसूरि की आचारजीया शाखा में उ० समयसुन्दर जी का सम्पूर्ण शिष्य परिवार, पुण्यप्रधानादि युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि जी के सभी शिष्य तथा अनेक नगरों का संघ जिनसागरसूरि जी को मानने लगा। मुख्य श्रावक समुदाय के धर्मकृत्य इस प्रकार हैं करमसी शाह संवत्सरी को महम्मदी मुद्रा, उनका पुत्र लालचंद श्रीफल की प्रभावना करता। माता धनादे ने उपाश्रय का जीर्णोद्धार कराया। भार्या कपूरदे ने धर्म कार्यों में प्रचुर द्रव्य व्यय किया। शाह शांतिदास, कपूरचंद ने स्वर्ण के लिये देकर ढाई हजार खर्च किया। उनकी माता मानबाई ने उपाश्रय के एक खण्ड का जीर्णोद्धार कराया। प्रत्येक वर्ष चौमासी (आषाढ़) के पौषधोपवासी श्रावकों को पोषण करने का वचन दिया। शा० मनजी के कुटुंब में उदयकरण, हाथी जेठमल, सोमजी मुख्य थे। हाथीशाह के पुत्र धन जी भी सुयश-पात्र थे। मूल जी, संघजी पुत्र वीर जी एवं परीख सोनपाल ने २४ पाक्षिकों को भोजन कराया। आचार्यश्री की आज्ञा में परीख चन्द्रभाण, लालू, अमरसी, सं० कचरमल्ल, परीख अखा, बाछड़ा देवकर्ण, शाह गुणराज के पुत्र रायचंद, गुलालचंद आदि राजनगर का संघ तथा खंभात के भणशाली वधू का पुत्र ऋषभदास भी धर्मकृत्य करने में उल्लेखनीय था। हर्षनन्दन के गीतानुसार मुकरबखान नवाब भी आपको सम्मान देता था। अनेक गीतार्थों को उपाध्याय, वाचक आदि पद प्रदान किये और स्वहस्त से अपने पट्ट पर जिनधर्मसूरि को स्थापित किया। उस समय भणशाली वधू की भार्या विमलादे और सधुआ की भार्या सहजलदे व श्राविका देवकी ने पदोत्सव बड़े समारोह से किया। श्री जिनसागरसूरि जी का शरीर अस्वस्थ हो जाने से वैशाख सुदि ३ को गच्छभार छोड़ कर, शिष्यों को गच्छ की शिखामण देकर वैशाख सुदि ८ को अनशन उच्चारण कर लिया। उस समय आपके पास उपाध्याय राजसोम, राजसार, सुमतिगणि, दयाकुशल वाचक, धर्ममन्दिर, ज्ञानधर्म, सुमतिवल्लभ आदि थे। सं० १७१९ ज्येष्ठ कृष्णा ३ शुक्रवार को आप समाधिपूर्वक स्वर्ग सिधारे। हाथी शाह ने धूमधाम से अन्त्येष्टि क्रिया की। संघ ने दो सौ रुपये खर्च कर गायें, पाड़े, बकरियों आदि की रक्षा की। शान्ति जिनालय में देववंदन किया। इनके रचित विहरमान बीसी एवं स्तवनादि उपलब्ध हैं। बीकानेर शान्तिनाथ मन्दिर और रेल दादाजी में आपके चरण स्थापित हैं। (२. आचार्य श्री जिनधर्मसूरि बीकानेर निवासी भणशाली रिणमल पिता और रत्नादे माता की कोख से सं० १६१८ में आपका जन्म हुआ था। जन्म नाम खरहत्थ था। सं० १७०८ वैशाख शुक्ला तृतीया को अहमदाबाद में श्री (२९८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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