________________
पधार कर सं० १९८२ का नलखेड़ा में चातुर्मास किया। चौदह प्रतिमाओं की अंजनशलाका की। मंडोदा में रिखबचंद जी चोरड़िया के निर्मापित गुरु मन्दिर में दादा जिनदत्तसूरि जी आदि की प्रतिष्ठा करवाई। खुजनेर और पड़ाणा में गुरु पादुकाएँ प्रतिष्ठित की। डग पधारने पर श्री लक्ष्मीचंद जी वैद की ओर से उद्यापनादि हुए, दादाश्री जिनकुशलसूरि जी की व रत्नप्रभसूरि जी व पादुकाओं की प्रतिष्ठा की। मांडवगढ़ यात्रा कर इंदौर, मक्सीजी, उज्जैन होते हुए महीदपुर पधारे। लब्धिमुनि व प्रेममुनि को वीबड़ोद चातुर्मासार्थ भेजा। स्वयं भावमुनि के साथ रुणीजा पधार कर सं० १९८३ का चातुर्मास किया। सं० १९८४ महीदपुर, सं० १९८५ भानपुरा चातुर्मास किया, उद्यापन व बड़ी दीक्षादि हुए। आपश्री मालवा में थे तो सेठ रवजी सोजपाल ने बम्बई पधारने की आग्रह पूर्ण विनती की। आपश्री ग्रामानुग्राम विचरते हुए घाटकोपर पहुँचे। मेघजी सोजपाल, पुणसी भीमसी आदि की विनती से बम्बई लालवाड़ी पधारे। श्री गौड़ी जी के उपाश्रय में दादासाहब की जयन्ती श्री विजयवल्लभसूरि जी की अध्यक्षता में बड़े ठाठ से मनाई । सं० १९८६ का लालबाड़ी में चातुर्मास किया। ____ गणिवर्य श्री रत्नमुनि के उपदेश और मूलचंद हीराचंद भगत के प्रयास से महावीर स्वामी देहरासर के पीछे खरतरगच्छीय उपाश्रय का जीर्णोद्धार हुआ। सं० १९८७ का चातुर्मास वहीं कर लब्धिमुनि जी के भाई लालजी भाई को सं० १९८८ पौष सुदि १० को दीक्षित कर महेन्द्रमुनि नाम से लब्धिमुनि का शिष्य बनाया। प्रेममुनि को योगोद्वहन के लिए श्री केशरमुनि जी के पास पालीताणा भेजा। वहाँ कच्छ के मेघजी को सं० १९८९ पौष सुदि १२ के दिन श्री केशरमुनि जी के हाथ से दीक्षित कर मुक्तिमुनि नाम रखकर प्रेममुनि का शिष्य बनाया।
श्री रत्नमुनि जी सूरत, खंभात होते हुए पालीताणा पधारे। श्री केशरमुनि जी को वन्दन कर फिर गिरनार जी की यात्रा की और मुक्तिमुनि जी को बड़ी दीक्षा दी। सं० १९८९ का चातुर्मास जामनगर करके अंजार पधारे। भद्रेश्वर, मुंद्रा, मांडवी होकर मेरावा पधारे। नेणबाई को बड़े समारोह और विविध धर्म कार्यों में सद्व्यय करने के अनन्तर दीक्षा देकर राजश्री जी की शिष्या रत्नश्री नाम से प्रसिद्ध किया।
सं० १९९१ का चातुर्मास आपने प्रेममुनि और मुक्तिमुनि के साथ भुज में किया। महेन्द्रमुनि की बीमारी के कारण लब्धिमुनि मांडवी रहे। उमरसी भाई की धर्मपत्नी इन्द्रा बाई ने उपधान, अठाई महोत्सवादि किये। तदनन्तर भुज से अंजार, मुंद्रा होकर मांडवी पधारे। यहाँ महेन्द्रमुनि बीमार तो थे ही, चैत्र सुदि २ को कालधर्म प्राप्त हुए। गणिवर्य लायजा पधारे, खेराज भाई ने उत्सव, उद्यापन, स्वधर्मी वात्सल्यादि किये।
कच्छ के डुमरा निवासी नागजी-नेण बाई के पुत्र मूलजी भाई जो अन्तर्वैराग्य से रंगे हुए थे, माता-पिता की आज्ञा प्राप्त कर गणिवर्य श्री रत्नमुनि के पास आये, दीक्षा का मुहूर्त निकला। नित्य नई पूजा-प्रभावना और उत्सवों की धूम मच गई। दीक्षा का वरघोड़ा बहुत ही शानदार निकला। मूली भाई का वैराग्य और दीक्षा लेने का उल्लास अपूर्व था। रथ में बैठे वर्सीदान देते हुए जय जयकार
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
(३८९)
Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org