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देवी के निर्देशानुसार आचार्य जी की आज्ञा से संघ ने घर जाकर वच्छराज से भाई भोजराज की याचना की। उसने संघ की बात मान कर भाई भोजा को उपाश्रय लाकर जयसिंहसूरि को समर्पित किया। जन्मपत्री के अनुसार उसका जन्म सं० १५६५ मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्थी गुरुवार की रात्रि में ११ घड़ी ११ पल पर उत्तराषाढ़ा नक्षत्र, ऋषियोग, कर्क लग्न, गण वर्ग में हुआ था और महाबुद्धिमान, दीर्घायुष, भाग्यवान, राज- प्रतिबोधक होने के फल का विचार कर सं० १५७५ में बड़े समारोहपूर्वक दीक्षित कर भोजकुमार नाम रखा।
सं० १५८२ फाल्गुन सुदि ४ गुरुवार के दिन जोधपुर में पट्टाभिषेक करने का निर्णय आचार्य जयसिंहसूरि, उपाध्याय भावशेखर, उ० क्षमासुन्दर, उ० ज्ञानसुन्दर आदि की उपस्थिति में किया गया। पट्टाभिषेक के अवसर पर श्री गंगेव राव को साग्रह आमंत्रण दिया । गुजरात - सूरत, चांपानेर, दीप, नागना, हाला, कच्छ, पारकर, गूडर, धाणधार, सामुही, घाट, खावड़, माड, मेवाड़, नागौर, उच्च, मुलतान, देरा, लाहौर, भोहरा, हाँसी, हिसार, मानपुरा, सिवाणची, महेवची, जालौरी, सांचौरी, राद्रहा आदि का संघ उपस्थित हुआ। मं० राजसिंह पुत्र सन्त, पत्ता, नोग, चौथ, चाचा देव, सूर, सहजपाल आदि परिवार के सहित नंदि मंडाण करके बड़गच्छनायक श्री पुण्यप्रभसूरि द्वारा सूरिमंत्र दिलाया । गंगेव राव आदि की पहिरावणी की, स्वधर्मी वात्सल्यादि समस्त संघ में किया, याचकों को कड़ा, घोड़ा, हाथी आदि व बागा, चूनड़ी आदि वितरित किए और श्री जिनगुणप्रभसूरि नाम स्थापना की गई ।
मंत्री राजसिंह ने गुरु महाराज को संघ सहित शत्रुंजय, गिरनार, आबू, शंखेश्वर, गौड़ी जी, वरकाणा, बीझेवा, भीनमाल, जालौर, सांचौर, सूराचन्द, बाहड़मेर आदि की यात्रा कराई। यह यात्रा सं० १५८५ में हुई। जोधपुर लौटकर संघ पूजा, स्वधर्मी - वात्सल्यादि करके बाहर से आगत संघ को विदा किया।
इस प्रकार क्रमशः १२ चातुर्मास के अनन्तर जैसलमेर के रावलजी एवं मं० श्रीरंग, मं० भोदेव, मं० वस्ता, मं० राइपाल, मं० सदारंग, छुट्टा, भोजा, जीया आदि समस्त संघ की वीनति से जैसलमेर की ओर विहार किया । उपा० भावशेखर को जोधपुर रखा । श्रीघण, तिमरी, सातलमेर, पोकरण आदि संघ को वंदाते हुए आसणीकोट पधारे। संघ ने प्रवेशोत्सव किया। श्री पार्श्वनाथ भगवान् को वन्दन कर सं० १५८७ आषाढ़ वदि १३ गुरुवार को विजय वेला में जैसलमेर उपाश्रय पधारे। रावल दास के पट्टधारी श्री जेतसीह उपाश्रय पधारे, मोतियों से बधाया, चातुर्मासपर्यन्त अमारि प्रवर्तित की । रावल जी ने आपको अपना गुरु स्थापित कर जैसलमेर में ही विराजने की प्रार्थना की। सूरिजी ने क्षमासुन्दर को सांचौर का देश, ज्ञानसुन्दर को मारवाड़ का देश, देवकल्लोल को पाटण-गुजरात देश, ज्ञानसमुद्र और नयसार को सिन्ध देश, भावशेखर और वीरमेरु को जालौर, भीनमाल, महेवची प्रान्त सौंपे । वीरमेरु के शिष्य सागरचन्द्र, उदयचन्द्र को बीकानेर और नागौर विचरने की आज्ञा देकर स्वयं जैसलमेर विराजे । सबको निर्दिष्ट प्रान्तों में दो-दो वर्ष विचरने की आज्ञा दी ।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड
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