________________
विवाद खड़ा हो गया। मंत्री समधर आदि ने कहा-"श्री जिनधर्मसूरि के साथ रावल देवकरण की दी हुई मर्यादानुसार होगा।" रावल जयतसीह सोढों पर चढ़ाई करने गये थे। राजकुमार लूणकरण दोनों पक्ष को समझा न सके। जिनमेरुसूरि संघ सहित घड़सीसर आकर ठहरे। तालाब में पानी नहीं होने से गुरु महाराज को प्रार्थना की। उन्होंने मेघमाली-धरणेन्द्र का ध्यान किया जिससे तुरन्त तालाब भर गया, बाहर एक बूंद भी नहीं गिरी, लोग चमत्कृत हुए। बेगड़ श्रावकों ने जनता को पानी न लेने दिया। राजकुमार के पास शिकायत की तो उसने लोगों को शांत रहने का आदेश दिया। रावल जी ने पधारते ही गुरु महाराज को वन्दन कर, उन्हें अनुनय विनयपूर्वक मना कर, आडंबर सहित नगर में ले जाकर नया उपाश्रय भेंट किया। सूरि जी ने वहाँ का कार्य श्री जयसिंहसूरि को संभला कर विहार करके थटा, नसरपुर, भक्खर, सीतपुर, मुलतान, उच्च, डेरा, बिण्णूं, भेहरा, लाहौर आदि सभी स्थानों पर योग्य शिक्षा देकर सातलमेरु, जोधपुर की ओर पधारे।
श्री भावशेखरोपाध्याय को मंडोवर, मेड़ता, नागौर, बीकानेर, खीमसर, सरसा, पाटण, नवहर आदि संघ की संभाल देकर स्वयं जालौर पधारे। मार्गवर्ती धूनाड़ा, वाड़ा, धारा, भागवा, थल, कड, रायपुर, धाणसा, मोहरा संघ को वंदाकर, जालौर में अनेक भव्यों को प्रतिबोध देकर, भीनमाल, सांचौर, धाखा, धनेरा, पालनपुर, सीतपुर होते हुए अणहिल्लपुर पाटण पधारे। वहाँ हरखा, बरजांग सोन किरीया ने संघ सहित बडली के पास कौनगिर में चौमासा रखा। उपाध्याय देवकल्लोल का चातुर्मास पाटण में कराया। बहुत से धर्मध्यान हुए।
स्वयं उपाध्याय श्री क्षमासुन्दर, ज्ञानसुन्दर को तथा आचार्य श्री जयसिंहसूरि को समस्त संघ की बागडोर सौंप कर पूज्यश्री सं० १५८२ में अणहिल्लपुर पाटण में स्वर्गवासी हुए। बडली गाँव में आपका स्तूप प्रतिष्ठित हुआ।
आपने सं० १५६४ वैशाख वदि ८ को अपने ही वंश के श्रावकों द्वारा निर्मापित श्रेयांस बिंबादि की प्रतिष्ठा की। (नाहर, लेखांक २४०८) महेवा में सदारंग कारित जिनमन्दिर की प्रतिष्ठा कराई और शत्रुजयादि तीर्थों की यात्रा की।
(६. आचार्य श्री जिनगुणप्रभसूरि) जैसलमेर में आचार्य श्री जयसिंहसूरि विचारने लगे-" जिनमेरुसूरि के पट्ट पर किसे स्थापित किया जाए? यद्यपि मैं स्वयं छाजहड़ गोत्र का हूँ पर मेरी वृद्धावस्था है, यदि पूज्यश्री का शिष्य हो तो उत्तम हो!"
त्रिपुरा देवी ने कहा-"चिन्ता न करें, जूठिल कुल शृंगार मंत्री भोदेव के पुत्र देदा के पुत्र नगराज-नागलदे माता के चार पुत्र हैं और गुरु महाराज की आज्ञा से उनका पूर्वज कुलधर भी वचनबद्ध था अतः गच्छ की परम्परा रक्षार्थ उनसे संघ सहित जाकर पुत्र की याचना करें।"
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
(२७३)
_Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org