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पूज्यश्री ने मुमुक्षु चिमनाजी के साथ उक्त दोनों-देवजी भाई और लधा भाई को अपने विद्वान् शिष्य श्री राजमुनि के पास आबू के निकटवर्ती मंडार गाँव में भेजा। राजमुनि ने दोनों मित्रों को सं० १९५८ चैत्र वदि ३ को शुभ मुहूर्त में दीक्षित कर रत्नमुनि और लब्धिमुनि नाम से प्रसिद्ध किया। प्रथम चातुर्मास में ही पंच प्रतिक्रमणादि अभ्यास पूर्ण किया। सं० १९६० वैशाख सुदि १० को पं० यशोमुनि जी के निकट बड़ी दीक्षा सम्पन्न हुई। तदनन्तर सं० १९७२ तक गुरुवर्य श्री राजमुनि के साथ विचरण किया। उनके स्वर्गवास के पश्चात् सं० १९७४-७५ के चातुर्मास बम्बई, सूरत में पं० श्री ऋद्धिमुनि व कान्तिमुनि जी के साथ किये। सं० १९७६-७७ भुज व मांडवी में गुरुभ्राता श्री रत्नमुनि के साथ किये। सं० १९७८ सूरत चातुर्मास कर सं० १९८५ तक राजस्थान व मालवा में केशरमुनि व रत्नमुनि के साथ विचरे। फिर चार वर्ष बम्बई विराजे। सं० १९८९ जामनगर चौमासा कर कच्छ पधारे। सं० १९९०१९९४ तक क्रमशः मेराऊ, मांडवी, अंजार, मोटी खाखर, मोटा आसंबिया में चातुर्मास किये। सं० १९९५-९६ पालीताणा, अहमदाबाद और १९९७-१९९८ बम्बई, घाटकोपर चौमासे कर, सं० १९९९ का सूरत में चातुर्मास कर मालवा पधारे। महीदपुर, उज्जैन, रतलाम चातुर्मास कर, २००४ में कोटा, फिर जयपुर, अजमेर, ब्यावर होकर २००८ का गढ़सिवाना चातुर्मास कर कच्छ पधारे। सं० २००९ भुज में श्री जिनरत्नसूरि जी के साथ दादावाड़ी की प्रतिष्ठा कराई। सं० २०११ तक अधिकांश चातुर्मास श्री जिनरत्नसूरि जी के साथ किए। उनके स्वर्गवास के पश्चात् भी कच्छ देश के विभिन्न क्षेत्रों को पावन करते रहे।
आप प्रकाण्ड विद्वान्, गंभीर और अप्रमत्तविहारी थे। आप में विद्यादान का बेजोड़ शुघनीय गुण था। काव्य, कोश, अलंकार, न्याय व व्याकरण के साथ-साथ जैनशास्त्रों के दिग्गज विद्वान् होने पर भी आप निरहंकार व सरलता की प्रतिमूर्ति थे। अध्यापन और ग्रन्थ-रचना के अतिरिक्त आप अधिकांश समय जप-ध्यान में बिताते थे। आशुकवि थे, सरल संस्कृत में काव्य रचना कर आपने जन-साधारण का बड़ा उपकार किया। श्री जिनरत्नसूरि जी के शिष्य योगीन्द्र सन्त प्रवर श्री भद्रमुनि जी, सहजानंद जी के तो आप ही विद्यागुरु थे। उन्होंने विद्यागुरु की एक संस्कृत में व छः स्तुतियाँ राजस्थानी भाषा में रची जो लब्धि जीवन प्रकाश में प्रकाशित हैं।
सं० १९९७ आषाढ़ सुदि ७ को बम्बई में श्री जिनऋद्धिसूरि जी ने आपको उपाध्याय पद से अलंकृत किया था। आपने सं० १९७० में खरतरगच्छ पट्टावली की रचना १७४५ पद्यों में की। उसके बाद समय-समय पर आपने जितने काव्यों की रचना की, उन्हें देखते हुए हम इन्हें सर्वाधिक ऐतिहासिक काव्यों के रचयिता कह सकते हैं। आपने सं० १९७२ में कल्पसूत्र टीका रची। नवपद स्तुति, दादासाहब के स्तोत्र, दीक्षा विधि, योगोद्वहन विधि आदि की रचना आपने सं० १९७७-७९ में की। सं० १९९० में श्रीपालचरित्र की रचना की।
___ सं० १९९२ में युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि ग्रन्थ प्रकाशित होते ही आपने उसके अनुसार १२१२ श्लोक परिमित छः सर्गों में संस्कृत काव्य रच डाला। सं० १९८० में जैसलमेर चातुर्मास में तत्रस्थ ज्ञानभंडार के कितने ही ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ की। सं० १९९६ में ६३३ पद्यों में श्री जिनकुशलसूरि
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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