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________________ से प्रयोजन हो वे हमारे साथ रहें और जो लोग असमर्थ हों, वे वेश त्याग कर गृहस्थ बन जावें, क्योंकि साधु वेश में अनाचार अक्षम्य है। सूरिजी के प्रबल पुरुषार्थ से ३०० यतियों में से सोलह व्यक्ति चन्द्रमा की सोलह कला रूप श्री जिनचन्द्रसूरि जी के साथ हो गए। संयम पालने में असमर्थ अवशिष्ट लोगों को मस्तक पर पगड़ी धारण करा के "मत्थेरण" गृहस्थ बनाया गया, जो महात्मा कहलाने लगे और अध्यापन, लेखन व चित्रकलादि का काम करके अपनी आजीविका चलाने लगे। सूरिजी की क्रान्ति सफल हुई। यह क्रियोद्धार सं० १६१४ चैत्र कृष्णा ७ को हुआ। बीकानेर चातुर्मास के अनन्तर सं० १६१५ का चातुर्मास महेवा नगर में किया और श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ प्रभु के सान्निध्य में छम्मासी तपाराधन किया। तप-जप के प्रभाव से आपकी योग-शक्तियाँ विकसित होने लगीं। चातुर्मास के पश्चात् आप गुजरात की राजधानी पाटण पधारे। सं० १६१६ माघ सुदि ११ को बीकानेर से निकले हुए यात्री संघ ने, शत्रुजय यात्रा से लौटते हुए पाटण में जंगमतीर्थ-सूरि महाराज की चरण वन्दना की। पाटण खरतरविरुद प्राप्ति का और वसतिवास प्रकाश का आद्य दुर्ग था। सूरि महाराज वहाँ चातुर्मास में विराजमान थे। उन्होंने पौषधविधिप्रकरण पर ३५५४ श्रीक परिमित विद्वत्ता पूर्ण टीका रची, जिसे महोपाध्याय पुण्यसागर और वा० साधुकीर्ति गणि जैसे विद्वान् गीतार्थों ने संशोधित की। उस युग में तपागच्छ में धर्मसागर उपाध्याय एक कलहप्रिय और विद्वत्ताभिमानी व्यक्ति हुए, जिन्होंने जैन समाज में पारस्परिक द्वेषभाव वृद्धि करने वाले कतिपय ग्रन्थों की रचना करके शान्ति के समुद्र सदृश जैन समाज में द्वेष-बड़वाग्नि उत्पन्न की। उन्होंने सभी गच्छों के प्रति विषवमन किया और "सुविहित शिरोमणि नवांगवृत्तिकर्ता श्रीमद् अभयदेवसूरि खरतरगच्छ में नहीं हुए, खरतरगच्छ की उत्पत्ति बाद में हुई" यह गलत प्ररूपणा की, क्योंकि अभयदेवसूरि जी सर्व गच्छ मान्य महापुरुष थे और वे खरतरगच्छ में हुए यह अमान्य करके ही वे अपनी चित्त-कालुष्य-वृत्ति खण्डनात्मक दुष्प्रवृत्ति की पूर्ति कर सकते थे। जब उनकी दुष्प्रवृत्ति प्रकाश में आई तो श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज ने उसका प्रबल विरोध किया और धर्मसागर उपाध्याय को समस्त गच्छाचार्यों की उपस्थिति में कार्तिक सुदि ४ के दिन शास्त्रार्थ के लिए आह्वान किया। परन्तु वे पंचासरा पाड़ा की पोशाल में द्वार बंद कर छिप बैठे। दूसरी बार कार्तिक सुदि ७ को पुनः धर्मसागर को बुलाया, परन्तु उनके न आने पर चौरासी गच्छ के एकत्रित गीतार्थों के समक्ष श्रीमद् अभयदेवसूरि के खरतरगच्छ में होने के विविध प्रमाणों सहित "मतपत्र' लिखा गया और उसमें समस्त गच्छाचार्यों के हस्ताक्षर करा के उत्सूत्रभाषी धर्मसागर को निह्नव प्रमाणित कर जैन संघ से बहिष्कृत कर दिया गया। इस प्रकार पाटण में पुनः शास्त्रार्थ-विजय की सुविहित पताका फहरा कर सूरि महाराज खंभात पधारे। सं० १६१८ का चातुर्मास करके सं०. १६१९ में राजनगर-अहमदाबाद पधारे। यहाँ मंत्रीश्वर सारंगधर सत्यवादी के लाये हुए विद्वत्ताभिमानी भट्ट की समस्या पूर्ति कर उसे पराजित किया। सं० (२२४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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