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१६२० का चातुर्मास वीसलनगर और सं० १६२१ का बीकानेर में किया । सं० १६२२ वैशाख सुदि ३ को प्रतिष्ठा कराके चातुर्मास जैसलमेर में किया। बीकानेर के मंत्री संग्रामसिंह ने बीच में नागौर में हसन कुली खान से संधि विग्रह में जय प्राप्त कर सूरि महाराज का प्रवेशोत्सव कराया । सं० १६२३ का चातुर्मास बीकानेर में बिताकर खेतासर के चोपड़ा चांपसी - चांपलदे के पुत्र मानसिंह को मार्गशीर्ष कृष्णा ५ को दीक्षित किया । इनका नाम " महिमराज' रखा, जो आगे चल कर सूरि महाराज के पट्टधर श्री जिनसिंहसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
सं० १६२४ का चौमासा नाडोलाई किया, मुगल सेना के भय से सभी नागरिक इतस्ततः नगर छोड़ कर भागने लगे। सूरि महाराज तो निर्भय थे, उपाश्रय में निश्चल ध्यान लगा कर बैठे रहे, जिसके प्रभाव मुगल सेना मार्ग भूल कर अन्यत्र चली गई। लोगों ने लौट कर सूरिजी के प्रत्यक्ष चमत्कार को देखकर भक्ति भाव से उनकी स्तवना की ।
सं० १६२५ बापेऊ, सं १६२६ बीकानेर, सं० १६२७ का चातुर्मास पूर्ण कर आगरा पधारे और शौरिपुर, चन्द्रवाड, हस्तिनापुरादि तीर्थों की यात्रा की। सं० १६२८ का चातुर्मास आगरा कर सं० १६२९ का चातुर्मास रोहतक में किया ।
सं० १६३० के बीकानेर चातुर्मास में प्रतिष्ठा व व्रतोच्चारण आदि धर्मकृत्य हुए। सं० १६३१ - ३२ का चातुर्मास भी बीकानेर में किया । सं० १६३३ में फलौदी पार्श्वनाथ तीर्थ के विपक्षियों द्वारा लगाये गये तालों को हस्त-स्पर्श मात्र से खोल कर तीर्थ दर्शन किए। फिर सं० १६३३ का जैसलमेर चातुर्मास कर गेली श्राविकादि को व्रतोच्चारण करवाये । तदनन्तर देरावर पधारे और दादा कुशल गुरु के स्वर्ग स्थान की यात्रा कर सं० १६३४ का वहीं चातुर्मास किया । सं० १६३५ जैसलमेर, सं० १६३६ बीकानेर, सं० १६३७ सेरुणा, सं० १६३८ बीकानेर, सं० १६३९ जैसलमेर और सं० १६४० में आसनीकोट चौमासा कर जैसलमेर पधारे। माघ सुदि ५ को अपने पट्ट शिष्य महिमराज जी को वाचक पद से विभूषित किया। सं० १६४१ का चातुर्मास करके पाटण पधारे। सं० १६४२ को चातुर्मास कर शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की। सं० १६४३ में अहमदाबाद चातुर्मास करके धर्मसागर के उत्सूत्रात्मक ग्रन्थों का उच्छेद किया। सं० १६४४ में खंभात चातुर्मास कर अहमदाबाद पधारे और संघपति सोमजी शाह के संघ सहित शत्रुंजयादि तीर्थों की यात्रा की। सं० १६४५ में सूरत चातुर्मास कर सं० १६४६ में अहमदाबाद पधारे और विजया दशमी के दिन हाजा पटेल की पोल स्थित शिवासोमजी के शान्ति जिनालय की प्रतिष्ठा बड़ी धूमधाम से सम्पन्न कराई। इस मन्दिर में ३१ पंक्तियों का शिलालेख लगा हुआ है एवं एक देहरी में संखवाल गोत्रीय श्रावकों का लेख है। सं० १६४७ में पाटण चौमासा किया, श्राविका कोडां को व्रतोच्चारण कराया। फिर अहमदाबाद होते हुए खंभात पधारे।
आपके त्याग तपोमय जीवन और विद्वत्ता की सौरभ अकबर के दरबार तक जा पहुँची। अकबर मंत्री कर्मचन्द्र को आदेश देकर सूरि महाराज को शीघ्र लाहौर पधारने के लिए वीनतिपत्र भेजने को
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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