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आदि गोत्रीय साह नेमीदास के पुत्र शाह भाईदास द्वारा कारित तीन खण्ड वाले उत्तम प्रासाद चैत्य में श्री शीतलनाथ, सहस्रफणा श्री गौड़ी पार्श्वनाथ आदि १८१ प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की।
सं० १८२८ वैशाख सुदि द्वादशी को वहाँ पर उसी देवगृह में श्री महावीर स्वामी आदि ८२ प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। इस मंदिर के प्रतिमा निर्माण और दोनों प्रतिष्ठा विधानादि कार्यों में व संघ के सत्कार आदि में छत्तीस हजार रुपये व्यय हुए।
सं० १८२९ मिती चैत्र सुदि १३ को सोम नंदी में ४ मुनियों की दीक्षा हुई। सूरत के संघ को संतुष्ट कर वहाँ से पाद विहार करते हुए मुनिसुव्रत भगवान् की यात्रा के लिए भरोंच पधारे। नर्मदा तट पर योगिनी के घनघोर वृष्टि उपद्रव से व्याकुल समस्त संघ की चिन्ता अपने इष्टदेव का ध्यान कर दूर की। वहाँ से आषाढ़ वदि ५ को २८ ठाणों से सूरिजी पाद विहार करते हुए सं० १८२९ में राजनगर पधारे। वहाँ तालेवर ने बहुत उत्सव किया। दो वर्ष तक सेवा का खूब लाभ लिया। वहाँ से संघ सहित पौष वदि ५ को धोलका, वीसावाड़ा, रायका, सीहोर होकर माघ वदि १ को भावनगर, घोघाबंदर पधारे। नवखण्डा पार्श्वनाथ तीर्थ की यात्रा करके पालीताना गए। सं० १८३० माघ वदि पंचमी को ७५ मुनियों के साथ शत्रुजय तीर्थ की यात्रा की। फिर जूनागढ़ आकर सं० १८३० फाल्गुन शुक्ला ९ को १०५ मुनियों के साथ श्रीगिरनार मण्डन नेमिजिनेश्वर की यात्रा की। फिर चैत्र सुदि ५ को वैरावल आये, डेढ़ मास रहे। वैशाख सुदि ३ देवका पाटण (वेलाकुल) पधारे , नवानगर (जामनगर) में विचरे। चैत्र वदि ४ को जूनागढ़ में ६ दीक्षाएँ तथा चैत्र वदि ११ को ५ दीक्षाएँ सोम नंदी में हुईं।
सं० १८३१ आषाढ़ वदि ६ को मांडवी-कच्छ पधारे। वहाँ अनेक कोट्याधीश, लक्षाधीश श्रीमंत व्यापारी निवास करते थे। उन लोगों का समुद्री व्यापार चलता था। श्री गुरु महाराज के चरण-कमलों को वंदन किया। एक वर्ष तक संघ ने खूब ठाठ से रखा। वहाँ से भुजनगर सं० १८३२ में आये, संघ ने श्रेष्ठ भक्ति की। वैशाख सुदि १२ को जय नंदि में १ दीक्षा हुई और माघ सुदि ९ को अंजार में १ दीक्षा हुई। सं० १८३२ ज्येष्ठ सुदि ८ को आसंबिया पधारे। सं० १८३३ का चौमासा मिनराबंद किया। उस देश में सर्वत्र विचरण कर बागड़ देश के राउपुर (रापर) में श्रीचिन्तामणि पार्श्वनाथ की वन्दना की।
सं० १८३३ चैत्र वदि द्वितीया को श्री गौड़ी पार्श्वनाथ जी की यात्रा करके गुढ़ा नगर पधारे। आषाढ़ वदि १ को २ दीक्षाएँ तथा आषाढ़ वदि ६ को १ व सुदि ८ को १ दीक्षा हुई।
इस प्रकार परम सौजन्य, सौभाग्यशाली, महोपकारी, अनेक सद्गुणों से शोभित आचार्यप्रवर श्री जिनलाभसूरि ने सं० १८३४ आश्विन वदि १० को गूढा नगर में देवगति प्राप्त की। आपने अपने जीवन में देश-विदेश में खूब विचरण कर अनेक मुमुक्षुओं को दीक्षित किया। आपकी रचनाओं में "आत्मप्रबोध" प्रकाशित है तथा दो चौबीसियाँ व स्तवनादि भी प्राप्त हैं।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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