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जाए तो क्या अनुचित है?" गुरु जी ने कहा-"बहुत अच्छा, ऐसा ही करें।" इस प्रकार गुरुदेव की सम्मति मिलने पर बड़े समारोह से कल्याणक उत्सव मनाया गया। गुरु जी को बड़ा सन्तोष हुआ। किसी दूसरे दिन सभी श्रावकों ने एकत्र होकर मंत्रणा की और गुरु जी से निवेदन किया-"अविधि प्रवृत्त विरोधियों के मन्दिर में हम लोग विधिपूर्वक धार्मिक अनुष्ठान के लिए स्थान नहीं पावेंगे अतः यदि गुरु महाराज की आज्ञा मिल जाय तो एक चित्तौड़ में पहाड़ के ऊपर और एक नीचे-दो मन्दिर बनवा लिए जाएँ।" श्रावक समुदाय के इस प्रस्ताव से सन्तुष्ट होकर गुरुजी ने कहा
जिनभवनं जिनबिम्बं जिनपूजां जिनमतं च यः कुर्यात्।
तस्य नरामरशिवसुख - फलानि करपल्लवस्थानि॥ [जो कोई पुरुष जिन मन्दिर, जिन प्रतिमा, जिन पूजा और जिनमत का आराधन करेगा। उस मनुष्य के देव लोक और मनुष्य लोक के एवं मोक्ष प्राप्ति तक के सुख रूपी फल हस्तगत ही समझें।]
इस प्रकार की देशना से सब श्रावक वृन्द महाराज के अभिप्राय को जान गए। लोगों में यह बात प्रसिद्ध हो गई कि ये लोग दो मन्दिर बनवायेंगे। इस बात को सुन कर प्रह्लादन के सब से बड़े सेठ बहुदेव ने अभिमान पूर्वक कहा-"ये आठ कापालिक (भिखारी) दो मन्दिर बनवायेंगे और राजमान्य होंगे अर्थात् इन बेचारों की क्या शक्ति है।" यह बात महाराज ने भी सुनी। संयोगवश बाहिर भूमि जाते समय एक दिन वह सेठ स्वयं महाराज से मिल गया। तब महाराज ने उससे कहा"हे भद्र! तुम्हें कभी भी गर्व नहीं करना चाहिए। देखो, भविष्य में इनमें से कोई राजमान्य भी हो सकेगा जो तुमको जेल से छुड़ायेगा।" तदनन्तर साधारण आदि श्रावकों ने बड़े उत्साह के साथ दो देव मन्दिर बनवाने आरम्भ कर दिये जो देव-गुरु की कृपा से थोड़े ही समय में तैयार भी हो गए। पहाड़ के ऊपर के मन्दिर में पार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा की स्थापना की गई और नीचे के मन्दिर में महावीर स्वामी की प्रतिमा स्थापित की गई। दोनों ही मन्दिरों की प्रतिष्ठा शास्त्र-विधि के अनुसार बड़े समारोह से श्री जिनवल्लभ गणि जी ने कराई। इस गुरुतर कार्य के किये जाने से महाराज की सर्वत्र ख्याति हो गई कि वास्तविक गुरु ये ही हैं।
१७. श्वेताम्बर साधु वर्ग के प्रमुख तथा सर्व शास्त्र-विषय के प्रखर पण्डित आये हुए हैं, ऐसा सुन कर कोई पण्डिताभिमानी ज्योतिषी ब्राह्मण एक दिन महाराज के पास आया। श्रावकों ने आसन देकर उसे आदरपूर्वक बैठाया। महाराज ने उससे पूछा-"आपका निवास कहाँ है?" उसने उत्तर दिया-"यहीं है?" फिर गुरु महाराज ने पूछा-"किस शास्त्र में आपका अधिकतर अभ्यास है? आप किस शास्त्र के पण्डित हैं?" ब्रा०-ज्योतिष शास्त्र में है। गणि-चन्द्र-सूर्य लग्नों को अच्छी तरह जानते हो? ब्रा०-खूब अच्छी तरह, क्या यहीं पर बिना गणित किये ही एक-दो-तीन लग्न बताऊँ? उसकी बातों से गणि जी जान गये कि यह अभिमानी है और विद्या से गर्वित होकर यहाँ आया है।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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