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________________ गणि- आपका शास्त्रीय ज्ञान बहुत उत्तम 1 - आपको भी लग्न विषय में कुछ अभ्यास है ? ब्राह्मण-: गणि- हाँ, लग्न विषयक कुछ-कुछ अनुभव है । ब्रा० - तो आप कोई लग्न बतलाइये । गणि-कहो, कितने लग्न कहूँ, दस या बीस । यह वचन सुनकर ब्राह्मण को बड़ा भारी आश्चर्य हुआ, अतः मौन रह गया। फिर गणि जी ने कहा - " पण्डित जी ! बतलाइये, आकाश में जो यह दो हाथ की बदली दिखाई देती है, कितना पानी बरसायेगी।'' ब्राह्मण को इस प्रथ का उत्तर न सूझा, अतः शून्य दृष्टि होकर इधर-उधर देखने लगा । गणि जी ने उसी समय कहा - " पण्डित जी ! यह बादल का दो हाथ का टुकड़ा दो घड़ी में सारे आकाश में फैल जाएगा और इतना बरसेगा कि दो चौड़े-चौड़े पात्र अपने आप जल से भर जायेंगे । ' ब्राह्मण के वहाँ पर ही बैठे रहते महाराज की भविष्यवाणी के अनुसार उस बादली ने इतना पानी बरसाया कि वे दोनों बड़े पात्र थोड़ी देर में पानी से परिपूर्ण हो गए। यह चमत्कार देखकर ब्राह्मण ने महाराज को हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और प्रार्थना की कि - " जब तक यहाँ रहूँगा आपकी चरण वन्दना करके भोजन करूँगा। मुझे ज्ञात नहीं था कि आप इस प्रकार के महात्मा हैं।" इस घटना से गणि जी की सर्वत्र प्रसिद्धि हो गई। सब लोग कहने लगे कि श्वेताम्बर साधुओं का शास्त्र विषयक ज्ञान बहुत अधिक है। १८. किसी समय मुनिचन्द्राचार्य ने अपने दो शिष्यों को सिद्धान्त - वाचना के लिए जिनवल्लभ गण के पास भेजा । गणि जी भी उनको अधिकारी समझ कर सिद्धान्त - वाचना देने को सहमत हो गए। वे दोनों अपने मन में महाराज के प्रति द्वेष रखते थे । अतः वे सर्वदा महाराज का अहित सोचा करते थे। गणि जी के श्रावकों को बहकाने के विचार से वे उनसे प्रीति का व्यवहार करने लगे । एक समय उन्होंने अपने गुरु के पास भेजने के लिए एक पत्र लिखा। उस लिखित पत्र को बस्ते में रखकर वाचना-ग्रहण करने के लिए वाचनाचार्य के पास आये और गणि जी के निकट वन्दना करके बैठ गये। पढ़ने के लिए बस्ता खोला तो उस नूतन पत्र पर महाराज की दृष्टि पड़ गई। महाराज ने पत्र को ले लिया और पढ़ने लगे। उस पत्र को महाराज के हाथों से ले लेने का उनका साहस न हुआ । उस लेख में लिखा था - " जिनवल्लभ गणि के कई श्रावकों को तो हमने अपने अनुकूल कर लिया है। थोड़े ही दिनों में सबको ही अपने अधीन कर लेने का दृढ़ संकल्प है।" महाराज को उनकी मनोवृत्ति का पूरा ज्ञान हो गया। इस पर महाराज ने उस पत्र को फाड़ डाला और एक आर्या छंद रच कर कहा (२८) Jain Education International 2010_04 आसीज्जनः कृतघ्नः क्रियमाणघ्नस्तु साम्प्रतं जातः । इति मे मनसि वितर्कों भविता लोकः कथं भविता ॥ खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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