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________________ [किये हुए उपकार को न मानने वाले कृतघ्न पुरुष पहिले भी थे, किन्तु प्रत्यक्ष में किये जाने वाले उपकार को न मानने वाले भी कृतघ्न पुरुष तो इस समय देखे जाते हैं। इससे मुझे रह-रह कर विचार आता है कि आगे होने वाले लोग कैसे होंगे?] महाराज ने उनसे कहा-"विद्या गुरु के प्रति तुम्हारे ऐसे अशुभ भाव पुनः चिन्तनीय हैं। अत: अब वाचना लेने की जरूरत नहीं है।'' वे अत्यन्त लज्जित हो कर अपने स्थान पर वापस चले गये, फिर कभी देखने में ही नहीं आये। १९. किसी समय जब जिनवल्लभ गणि जी बहिर्भूमिका के लिए जा रहे थे, उस समय महाराज की विद्वत्ता की प्रशंसा सुन कर आया हुआ एक पण्डित रास्ते में ही उनसे मिला और किसी राजा के वर्णन के लक्ष्य से एक समस्या पद उनके सामने रखा-"कुरंगः किं भुंगो मरकत मणिः किं किमशनिः।" महाराज ने कुछ थोड़ा सा सोचकर तत्काल ही उस समस्या की पूर्ति कर दी और उसे सुना दी चिरं चित्तोद्याने वसति च मुखाब्जं पिबसि च, क्षणादेणाक्षीणां विषयविषमोहं हरसि च। नृप! त्वं मानाद्रिं दलयसि रसायां च कुतुकी, कुरङ्गः किं भृङ्गो मरकतमणिः किं किमशनिः॥ [हे राजन् ! आप मृगनयनी सुन्दरियों के चित्तरूपी उद्यान में विचरते हैं, इसलिए आपके विषय में उद्यानचारी हरिण की आशंका होती है। उन्हीं सुन्दरियों के मुख-कमलों का पान करते हैं, इसलिए आप में भ्रमर का सन्देह होता है। आप कामिनियों की वियोग विष से उत्पन्न हुई मूर्छा को दूर करते हैं, अतः आप मरकत मणि जैसे शोभित होते हैं और मानिनियों के मान रूपी पर्वत को चूर-चूर कर देते हैं, अतः आपके विषय में वज्र की आशंका होने लगती है।] इस प्रकार सुन्दर साभिप्राय समस्या-पूर्ति को सुन कर वह आगन्तुक पण्डित अति प्रसन्न हुआ और कहने लगा कि-"लोक में आपकी जैसी प्रसिद्धि हो रही है वास्तव में आप वैसे ही हैं, आपकी यह प्रसिद्धि यथार्थ है।" महाराज श्री की प्रशंसा करता हुआ चरणों में वन्दना करके वह चला गया। तदनन्तर गुरु जी भी अपने वास स्थान पर आ गये। वहाँ पधारने पर श्रावकों ने प्रार्थना की"आज आपको बाहर से आने में बहुत अधिक समय लगने का क्या कारण हुआ?" तब आपके संग में जाने वाले शिष्य ने समस्या सम्बन्धी सारी बातें कहीं, जिसे सुनकर श्रावकों को बड़ी प्रसन्नता हुई। २०. किसी समय गणदेव नामक एक श्रावक यह सुनकर कि महाराज के पास सुवर्ण बनाने की सिद्धि है। अतः सुवर्ण प्राप्ति के लिए चित्तौड़ में आकर तन-मन-धन से महाराज की सेवा करने लगा। महाराज ने उसके अभिप्राय को जान लिया और उसे योग्य समझकर धीरे-धीरे ऐसी देशना दी कि जिससे अल्प समय में ही उसको वैराग्य भाव प्राप्त हो गया। जब वह अच्छी तरह विरक्त हो गया तब महाराज ने उससे कहा-'भद्र ! क्या तुम्हें सुवर्ण सिद्धि बतलाऊँ?" उसने कहा-"भगवन् ! अब संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास (२९) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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