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मुझे सुवर्ण सिद्धि से कोई प्रयोजन नहीं है, मेरे पास के ये बीस रुपये ही पर्याप्त हैं। इनके द्वारा ही मैं व्यापार करता हुआ श्रावक धर्म का पालन करूँगा । अधिक परिग्रह सर्वथा दुःख का कारण है । " महाराज ने विचारा-'' इसकी जन्म कुण्डली और हस्त रेखा से विदित होता है कि इसके द्वारा भव्य पुरुषों में धर्म-वृद्धि होगी ।" उसमें वक्तृत्व शक्ति बहुत उत्तम थी, इसके लिए उसको धर्म तत्त्वों का उपदेश करके उसे धर्म प्रचार के लिए बागड़ देश की ओर भेज दिया। अपने निर्मित " कुलक" लेख भी उसको पढ़ा दिये थे जिनके द्वारा उसने वहाँ लोगों को विधिमार्ग का पूर्ण स्वरूप बतलाकर अधिकांश जनता को गणि जी के मन्तव्यों का अनुयायी बना दिया ।
२१. गणि जी महाराज के व्याख्यान में अच्छे-अच्छे विद्वान् मनुष्य आया करते थे। अधिकतर ब्राह्मण लोग अपने-अपने सन्देहों को निवारण करने के लक्ष्य से आया करते थे । एक दिन व्याख्यान में निम्नोक्त गाथा आई
[ सम्यक्त्व के चौथे आचार अमूढ दृष्टिपने का वर्णन करते हुए इस गाथा में कहा गया है किजिस मनुष्य की दृष्टि (मति) धिग्जातियों (ब्राह्मणों) को, गृहस्थों को या पासत्थे आदि को देख कर भी मुग्ध नहीं बनती, यानि शंकायुक्त नहीं बनती, यानि शंकायुक्त नहीं होती उसे शास्त्रकार अमूढदृष्टि कहते हैं ।]
धिज्जाईण गिहीण य, पासत्थाईण वा विदट्ठणं । जस्स न मुज्झइ दिट्ठी, अमूढदिट्ठि तयं बिंति ॥
इस गाथा में ब्राह्मणों को धिग्जातीय कहा है उसे सुन कर ब्राह्मण लोग रुष्ट होकर उठ गये और व्याख्यान सभा से बाहर चले गये। सब ने एकत्र होकर सर्वसम्मति से निश्चय किया कि - " इनके साथ शास्त्रार्थ किया जाए और उसमें इनको पराजित किया जाए ।" उनके इस निश्चय को सुनकर गण जी के हृदय में अणु मात्र भी भय की उत्पत्ति न हुई, क्योंकि विद्या, बुद्धि, प्रतिभाबल में उनका तीर्थंकरों के समान प्रभाव था । अतः
मर्यादाभङ्ग भीतेरमृतमयतया
धैर्यगाम्भीर्ययोगात्, न क्षुभ्यन्त्येव तावन्नियमितसलिला: सर्वदैते समुद्राः । आहो क्षोभं व्रजेयुः क्वचिदपि समये दैवयोगात्तदानीं, न क्षोणी नाद्रिचक्रं न च रविशशिनौ सर्वमेकार्णवं स्यात् ॥
[सर्वदा नियमित जल वाले ये समुद्र अमृतमय होने के कारण धीरता व गंभीरता के योग से एवं मर्यादा भंग के भय से प्रथम तो कभी क्षोभित होते ही नहीं, फिर भी कदाचित् दैवयोग से यदि ये समुद्र क्षोभ को प्राप्त हो गए तो पृथ्वी व पहाड़ - पर्वत एवं सूर्य-चन्द्र तक कोई नहीं रहने का, सारा जगत एकार्णव जलमय ही हो जाएगा ।]
(३०)
महाराज श्री ने इस श्लोक को भोजपत्र पर लिख कर एक योग्य मनुष्य के हाथ में देकर कहा-‘“इस पत्र को ब्राह्मणों की सभा में ले जाओ और उनमें सबसे बड़े मुख्य ब्राह्मण को दे
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड
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