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________________ इसी समय में (इलाही सन् ४१ ता० ३१ खुरदाद) आषाढ़ी अष्टाह्निका के फरमानों में सूबे मुलतान का फरमान खो जाने से श्री जिनसिंहसूरि जी ने सम्राट अकबर से नया फरमान प्राप्त किया। जिसका उल्लेख सम्राट ने स्वयं किया है। सं० १६६२ में बीकानेर के ऋषभदेव जिनालय की प्रतिष्ठा के समय आप गुरु महाराज के साथ थे। सम्राट अकबर और जहाँगीर से आपका बराबर सम्बन्ध रहा है। जहाँगीर को बोध देकर अभयदान की उद्घोषणा कराई एवं नवाब मुकुरबखान को भेजकर "युगप्रधान" पद दिया। सं० १६७० में गुरुदेव के निर्वाण के अनन्तर गच्छनायक युगप्रधान हुए। सं० १६७१ में लवेरा में समयसुन्दर वाचनाचार्य को उपाध्याय पद से विभूषित किया। इसी वर्ष मिती पौष सुदि १३ को मेड़ता से आसकरण चोपड़ा के शत्रुजय-आबू आदि तीर्थों के विशाल संघ के साथ चैत्री पूनम की यात्रा कर आसकरण को संघपति पद दिया। फिर खंभात से स्तंभन पार्श्वनाथ की यात्रा कर पाटण, अहमदाबाद होकर बडली पधारे। दादा जिनदत्तसूरि जी के चरणों के दर्शन किये। वहाँ से सीरोही पधारे। वहाँ राजा रायसिंह ने बड़ी भक्ति की। वहाँ से जालौर पधारने पर संघ ने समारोहपूर्वक नगर प्रवेश कराया। खांडप, द्रुनाड़ा होते हुए घंघाणी तीर्थ में प्राचीन प्रतिमाओं के दर्शन किए। वहाँ से क्रमशः विहार करते बीकानेर पधारने पर शाह बाघमल ने धूमधाम से प्रवेशोत्सव कराया। श्री जिनसिंहसूरि जी ने गुरुदेव के स्वर्गगमन स्थान बिलाड़ा में मिगसर सुदि १० को उनकी चरण पादुकाएँ प्रतिष्ठित की। सं० १६७२ में वैशाख सुदि ९ को जैसलमेर में देदानसर तालाब स्थित दादावाड़ी में चरणपादुकाएँ स्थापित की। यहाँ के स्तंभ पर लेख खुदा है जिसमें राउल कल्याणदास व कुंवर मनोहरदास का राज्यकाल लिखा है। खंभात में भी आपने गुरुदेव के चरण प्रतिष्ठित किए थे जिनका लेख सं० १६७७ (?) माघ वदि १० का है और आपके द्वारा प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख है। जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग १, लेखाङ्क ८८२ में संवत् पढ़ने में भूल हुई है। सं० १६७४ का चातुर्मास बीकानेर में हुआ। सम्राट जहाँगीर आपके दर्शनों के लिए अति उत्कण्ठित था। उसने अपने बड़े-बड़े उमराव और वजीरों को भेजकर आगरा पधारने की वीनती कराई। फरमान पढ़ कर संघ बड़ा आनन्दित हुआ। सम्राट के आग्रह से आचार्यश्री ने बीकानेर से विहार किया और मेड़ता पधारे। वहाँ के संघ की अतिशय भक्ति से एक मास रुकना पड़ा। वहाँ से सम्राट के पास जाने के लिए प्रयाण किया पर मनुष्य का विचारा नहीं होता। सूरि महाराज का शरीर अस्वस्थ हो गया और उन्हें वापस लौटकर मेड़ता आना पड़ा। ज्ञानदृष्टि से अपना आयुष्य अल्प ज्ञात कर, अनशन-आराधनापूर्वक चौरासी लक्ष जीवयोनि से क्षमत-क्षामणा करके मिती पौष सुदि १३ के दिन स्वर्ग सिधारे। मेड़ता संघ ने सूरिजी के पट्ट पर अभिषिक्त करने के सम्बन्ध में विचार-विमर्श कर राजसमुद्र वाचक जी को गच्छनायक भट्टारक और सिद्धसेन को आचार्य पद देने का निर्णय किया। चोपड़ा आसकरण, अमीपाल, कपूरचन्द, ऋषभदास, सूरदास परिवार ने संघ से आज्ञा प्राप्त कर सं० १६७४ फाल्गुन वदि ७ सोमवार को पदस्थापना महोत्सव किया। (२३४) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International 2010_04
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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