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________________ २. श्री सागरचन्द्रसूरि उपशाखा आचार्य जिनोदयसूरि के प्रशिष्य और आचार्य जिनराजसूरि के शिष्य सागरचन्द्रसूरि अपने समय के प्रभावशाली आचार्य थे। वि०सं० १४६१ में जब जिनराजसूरि का निधन हुआ, उस समय इन्होंने जिनवर्धनसूरि को उनके पट्ट पर स्थापित किया। बाद में जब जैसलमेर के पार्श्वनाथ जिनालय में क्षेत्रपाल की प्रतिमा को जिनालय से बाहर स्थापित करने के कारण जिनवर्धनसूरि पर दैवी प्रकोप हुआ तो इन्होंने उनके स्थान पर जिनभद्रसूरि को स्थापित कर दिया और उन्हीं से मूल परम्परा आगे चली। इन्होंने संवत् १४४४ में चित्तौड़गढ़ पर आदिनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी। संवत् १४५९ में चिन्तामणि पार्श्वनाथ मन्दिर, जैसलमेर में जिनबिम्ब की स्थापना की थी। विज्ञप्तित्रिवेणी के अनुसार जैसलमेर नरेश लक्ष्मणदेव राउल इनके भक्त थे। सागरचन्द्रसूरि की शिष्यसन्तति उनके नाम के आधार पर सागरचन्द्रसूरि शाखा कहलायी। यह परम्परा भी कोई स्वतंत्र शाखा न होकर क्षेमकीर्ति शाखा, जिनभद्रसूरि शाखा एवं कीर्तिरत्नसूरि शाखा की ही भाँति मुख्य परम्परा की ही आज्ञानुवर्ती रही है। रचना प्रशस्तियों के अनुसार जो शिष्य परम्परा का उल्लेख मिलता है, वह निम्न है :- (देखें, पृष्ठ ३३८) . सागरचन्द्रसूरि द्वारा रचित न तो कोई कृति ही मिलती है और न ही किन्हीं प्रतिमालेखादि में प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में इनका नाम मिलता है। इन्हीं की परम्परा में समयभक्त के शिष्य पुण्यनंदि हुए जिन्होंने वि०सं० १५३०-३२ में रूपकमाला की रचना की। विक्रम की १७वीं शती के मध्य हुए ज्ञानप्रमोद ने वाग्भटालंकार टीका और उनके शिष्य गुणनन्दन ने वि०सं० १६६५ में मंगलकलशरास की रचना की। ज्ञानप्रमोद और उनके शिष्य गुणनन्दन सागरचन्द्रसूरि शाखा के ही थे। यह बात उक्त कृतियों की प्रशस्ति से ज्ञात होती है। विभिन्न ग्रन्थ भंडारों के प्रकाशित सूची पत्रों में दी गयी प्रशस्तियों से ज्ञात होता है कि इस शाखा के विभिन्न मुनिजनों ने समय-समय पर विभिन्न ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ तैयार की। इस शाखा से सम्बद्ध कुछ अभिलेखीय साक्ष्य भी उपलब्ध हैं जो वि०सं० १७५५ से वि०सं० १९६५ तक के हैं और इनसे २०वीं शती के छठे दशक के मध्य तक इस शाखा की विद्यमानता का पता चलता है। २०वीं शताब्दी में तो इस शाखा के ५० से अधिक यति विद्यमान थे। इनमें से दो यतियों के विशिष्ट कार्य उल्लेखनीय हैं। उपाध्याय आनन्दविनय गणि के पौत्र शिष्य सत्यनन्दन को जिनहंससूरि ने वि०सं० १९३० में बीकानेर में दीक्षा दी थी। इनका जन्म नाम समीरमल था और ये आजीवन इसी नाम से जाने जाते रहे। वि०सं० २००१ तक ये विद्यमान रहे। ये भीनासर में रहते थे। इनके हस्तलिखित ग्रन्थों के संग्रह में उपाध्याय समयसुन्दर द्वारा रचित जिनसिंहसूरिपट्टाभिषेककाव्य की स्वलिखित एवं आदर्श प्रति थी। महाकवि कालिदास के रघुवंशमहाकाव्य के द्वितीय सर्ग की पादपूर्तिरूप यह काव्य रचा गया था। - (३३६) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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