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________________ ४. श्री कीर्तिरत्नसूरि उपशाखा यह खरतरगच्छ की स्वतंत्र शाखा न होकर क्षेमकीर्तिशाखा, जिनभद्रसूरिशाखा आदि के समान एक उपशाखा ही थी। यह परम्परा कीर्तिरत्नसूरि के समय से लेकर कीर्तिसार (क्रियोद्धार के पश्चात् जिनकृपाचन्द्रसूरि) के समय तक बड़ी गद्दी अर्थात् बीकानेर के श्रीपूज्यजी की ही आज्ञानुवर्ती रही। आचार्य कीर्तिरत्नसूरि जिनवर्धनसूरि के शिष्य थे। उन्हीं से इन्होंने दीक्षा ग्रहण की और गुरु ने ही इन्हें वि०सं० १४७० में वाचक पद प्रदान किया था। वि०सं० १४७५ में जब क्षेत्रपाल को लेकर विवाद और फलस्वरूप शाखा भेद हुआ तो उस समय ये जिनवर्धनसूरि और जिनभद्रसूरि दोनों से तटस्थ रहे। बाद में जिनभद्रसूरि ने इन्हें (कीर्तिराज) को अपनी ओर मिला लिया और वि०सं० १४८० में उपाध्याय पद प्रदान किया। जिनभद्रसूरि ने ही वि०सं० १४९७ में इन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर कीर्तिरत्नसूरि नाम प्रदान किया। इनकी परम्परा में इनके पश्चात् गुणरत्नसूरि को छोड़कर किसी भी अन्य मुनि को आचार्य पद नहीं मिला। कीर्तिरत्नसूरि के सम्बन्ध में हमें निम्नलिखित साक्ष्यों से जानकारी प्राप्त होती है-१. कीर्तिरत्नसूरिस्तूप प्रशस्ति, २. हर्षकल्लोल गणि द्वारा लिखित कीर्तिरत्नसूरि परम्परा का इतिहास (अप्रकाशित), ३. शंखवाल गोत्र का इतिहास, ४. कीर्तिरत्नसूरिउत्पत्तिछंद एवं गीत-स्तवन आदि । उक्त साक्ष्यों के आधार पर इनके जीवन-परिचय को यहाँ अति संक्षिप्त में प्रस्तुत किया जा रहा है। ___ इनके पिता का नाम देपमल्ल और माता का नाम देवलदे था। ये शंखवालेचा गोत्र के थे। वि०सं० १४४९ चैत्र सुदि ८ को कोरटा में इनका जन्म हुआ। ये अपने भाइयों में सबसे छोटे थे। १३ वर्ष की उम्र में इनका विवाह होना निश्चित हुआ और ये बारात लेकर चले भी, किन्तु मार्ग में इनके सेवक का दुःखद निधन हो गया जिससे इन्हें वैराग्य हो गया और अपने परिजनों से आज्ञा लेकर वि०सं० १४६३ आषाढ़ वदि ११ को जिनवर्धनसूरि के पास दीक्षित हो गये और कीर्तिराज नाम प्राप्त किया। अल्पसमय में ही विभिन्न शास्त्रों में निपुण हो गये तब पाटण में जिनवर्धनसूरि ने इन्हें वि०सं० १४७० में वाचक पद प्रदान किया। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि जैसलमेर के जिनालय में क्षेत्रपाल को बाहर स्थापित करने के प्रसंग में संघ भेद हो गया और जिनवर्धनसूरि का शिष्य समुदाय अलग हो गया जो आगे चलकर पिप्पलक खरतर के नाम से जाना गया। कीर्तिराज को जिनवर्धनसूरि और जिनभद्रसूरि दोनों ने आमंत्रित किया। दुविधा की स्थिति में इन्होंने ४ वर्ष महेवा में ही बिताये। वि०सं० १४८० में जिनभद्रसूरि स्वयं महेवा पधारे और इन्हें वि०सं० १४८० वैशाख सुदि १० को उपाध्याय पद प्रदान किया। कीर्तिराज उपाध्याय संस्कृत साहित्य के प्रौढ़ विद्वान् और प्रतिभा सम्पन्न कवि थे। वि०सं० १४७३ में जैसलमेर में रचित लक्ष्मणविहारप्रशस्ति इनकी सुललित पदावली युक्त रमणीय कृति है। (द्रष्टव्य० जैनलेखसंग्रह, भाग-३)। सं० १४७६ में रचित अजितनाथजयमाला चित्रस्तोत्र चित्रालंकार और श्लेषगर्भित (३४८) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड ____Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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