________________
७. भावहर्षीय शाखा
श्री जिनमाणिक्यसूरि जी के राज्यकाल में गच्छ में व्याप्त शैथिल्य का परिहार कर कई त्यागी - वैरागियों ने क्रियोद्धार किया था और सुविहित गच्छ के साधु मार्ग की स्थिति सूत्रबद्ध की थी । सं० १६०६ में उपाध्याय कमलतिलक जी के साथ वा० भावहर्ष गणि व शुभवर्द्धन गणि का भी ५२ बोल के पत्र में वर्णन मिलता है। भावहर्ष गणि सागरचन्द्रसूरि शाखा के वा० साधुचन्द्र के शिष्य कुलतिलक जी के शिष्य थे । भावहर्षीय शाखा के आप आद्य आचार्य थे। बालोतरा में इस शाखा की गद्दी है जिसकी परम्परा इस प्रकार है
१. भावहर्षसूरि
२. जिनतिलकसूर
३. जिनोदयसूरि
४. जिनचन्द्रसूरि
५. जिनसमुद्रसूरि
६. जिनरत्नसूर
७. जिनप्रमोदसूरि
८. जिनचन्द्रसूरि
९. जिनसुखसूरि
१०. जिनक्षमासूर
११. जिनपद्मसूरि
१२. जिनचन्द्रसूरि
१३. जिनफतेन्द्रसूरि
१४. जिनलब्धिसूरि
१. आचार्य श्री भावहर्षसूरि
मरुधर देशान्तर्गत भटनेर में नाहर गोत्रीय कोडा शाह की धर्मपत्नी कोडमदे के आप पुत्र थे । सं० १५६१ में आपका जन्म हुआ था । सं० १५६६ में अर्थात् ५ वर्ष की लघुवय में ही सागरचन्द्रसूरि संतानीय साधुचन्द्र जी के पास दीक्षा लेकर कुलतिलक गणि के शिष्य बने । उनके पास सिद्धान्त ग्रन्थों का अभ्यास कर वाचक पद प्राप्त किया। बीकानेर में सं० १६०६ के क्रियोद्धार नियम पत्र (५२ बोल) के समय आप वाचक पदारूढ़ थे । सं० १६१० माघ शु० १० को जैसलमेर में गच्छ नायक श्री जिनमाणिक्यसूरि ने आपको पाठक पद से अलंकृत किया । महेवा के छाजेड़ हरखा ने संवत्सरी के दिन छींक आने से गच्छ भेद का ताना मारने पर उसने सं० १६१६ में वैशाख सु० १० गुरुवार को जोधपुर (वीरमपुर-महेवा नगर) में आपको आचार्य बनाया, भणशाली लाखा ने पदोत्सव किया। आपका भावहर्षसूरि नामकरण किया गया। आपके नाम से ही यह शाखा भेद हुआ। आपने सरस्वती देवी की प्रसन्नता और शुभाशीष प्राप्त किया था। आपके हेमसार, रंगसार आदि कई विद्वान् और कवि शिष्य थे।
इनके द्वारा सं० १६२२ में रचित जैसलमेर अष्टापद प्रासाद गीत गाथा १३ जैसलमेर के कलापूर्ण जैन मंदिर में प्रकाशित है । इन्होंने वि०सं० १६२६ में साधुवंदना नामक कृति की भी रचना की ।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
(२९३) www.jainelibrary.org