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ने अपने बनाये हुए अलंकार पूर्ण सुन्दर स्तोत्रों से स्तुति करने पूर्वक नमस्कार किया। स्त्री-पुत्रों सहित संघपति सेठ रयपति श्रावक ने सब से पहले सोने की मुहरों से नवांगी पूजा की। इसी प्रकार अन्य धनी-मानी श्रावकों ने भी रुपयों से नव अंगों की पूजा की। उसी दिन भगवान् श्री युगादिदेव के समक्ष देवभद्र और यशोभद्र नामक क्षुल्लकों की दीक्षा का महोत्सव बड़े आडम्बर से किया गया।
- इसके बाद जिनशासन की प्रभावना करने में प्रवीण, श्रीदेव-गुरु की आज्ञा-पालन में तत्पर श्री रयपति सेठ के विशाल संघ के पृष्ठरक्षक, निरन्तर अन्नदान करने से यश को उपार्जित करने वाले, चतुर्विध बुद्धि के अतिशय से महाराजा श्रेणिक के मंत्री अभयकुमार के समान, काठियावाड़ नरेश महीपालदेव की देहान्तर-समान, संघ कार्य संचालन में दक्ष, महाप्रभावशाली, अपने कनिष्ठभ्राता सेठ मोखदेव सहित, श्रीमालकुलभूषण सेठ छज्जल के वंश में दीपक समान सेठ राजसिंह श्रावक ने आषाढ़ वदि सप्तमी और अष्टमी के दिन विधिपूर्वक श्री ऋषभदेव भगवान् के मुख्य मन्दिर में निज की बनवाई हुई श्री नेमिनाथ आदि अनेक मूर्तियों का प्रतिष्ठा महोत्सव समग्र लब्धि-निधान जंगम युगप्रधान श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज के हाथ से करवाया। उत्सव में बारह प्रकार के बाजे बजवाये गए। समस्त स्वधर्मियों की बड़ी सेवा की गई। समस्त प्राणियों को मिष्ठान्न-पान देकर सन्तुष्ट किया गया। स्वर्ण-वस्त्र-आभूषण-घोड़े आदि बाँटे गए। इस अवसर पर आचार्यश्री के निज भंडार में रखने योग्य समवसरण (सूरिमंत्र पट) एवं आचार्य श्री जिनपतिसूरि, श्री जिनेश्वरसूरि आदि गुरुमूर्तियों प्रतिष्ठा की गई थी। लोगों का कहना है कि अपने शिष्य की लब्धि से प्रसन्न होकर युगप्रधानाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज भी स्वर्ग से इस महोत्सव को देखने आए थे, जो कितने ही उत्तम श्रावकों को दृष्टिगोचर हुए थे। उसी दिन सेठ जाल्हण के कुल में दीपक समान और समस्त धर्मकार्यों की आराधना में भगवान् महावीर स्वामी के श्रावक आनन्द-कामदेवादिक का अनुकरण करने वाले, दान से याचकों के मनोरथ पूरे करने वाले सेठ तेजपाल ने अपने छोटे भाई रुद्रपाल के साथ पत्तन में प्रतिष्ठित मूलनायक श्री युगादिदेव भगवान् की प्रतिमा पत्तनीय संघ की तरफ से नूतन बनवाये गये मन्दिर में अपने अद्भुत प्रभाव से आर्य श्री वज्रस्वामी का अनुकरण करने वाले पूज्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज के कर-कमलों से करवाई। उस समय महाराजाधिराज श्री संप्रति के समान पुण्य प्रभावशाली सेठ रयपति प्रमुख नाना स्थान वास्तव्य समस्त श्रावक संघ का बड़ा भारी मेला जमा हुआ था एवं समस्त वैज्ञानिक (मन्दिर के बनाने वाले शिल्पी) वर्ग को स्वर्णमय हस्त संकलिका व कंबिका (सोटी) तथा उत्तम रेशमी वस्त्रादि के दान से खूब संतोषित किया गया था। वहीं पर युगादिदेव के मंदिर में मालारोपण, सम्यक्त्वधारण, परिग्रह-परिमाण, सामयिक व्रत-धारण आदि निमित्त नन्दि महोत्सव बड़े ठाठ से किया गया था। नवमी के दिन सुखकीर्ति गणि को वाचनाचार्य पद प्रदान किया गया और हजारों श्रावकों-श्राविकाओं ने नन्द्यारोपण (मालारोपण) किया। उसी दिन नये बनाये हुए मन्दिर पर ध्वजारोहण कार्य भी विस्तार से किया। इस प्रकार शत्रुजय तीर्थ पर दस दिन तक बड़ी चहल-पहल रही। श्री श्रीमालकुल के मुकुटमणि श्री हरु सेठ के वंश रूपी मन्दिर पर कलश की उपमा को पाने वाले सेठ रयपति, सा० महणसिंह, सा० तेजपाल, सा० राजसिंह आदि संघ
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04
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