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कुशलचन्दजी सिंघवी हैदराबाद आदि श्रेष्ठियों ने इस ग्रंथ के संयुक्त प्रकाशक बन कर 'खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास' प्रकाशन का जो लाभ लिया एवं अखिल भारतवर्षीय श्री खरतरगच्छ महासंघ के उपाध्यक्ष श्री ललित कुमार नाहटा के प्रयत व प्रेरणा से जो भी प्रकाशन सहयोगी बने है, उन सभी के प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूँ।
चारित्रचूडामणि, परम शान्तमूर्ति गुरुदेव श्री जिनमणिसागरसूरिजी महाराज के अपूर्व वात्सल्य और अमोघ आशीर्वाद का ही फल है कि उनका सान्निध्य पाकर मैं साहित्य-सेवी बन सका और इस इतिहास के लेखन में सक्षम हो सका।
प्रसिद्ध विचारक महोपाध्याय श्री चन्द्रप्रभसागरजी ने मेरे कथन को स्वीकार कर इस इतिहास की सांगोपांग भूमिका लिखी है। भूमिका में इन्होंने विविध आयामों से खरतरगच्छ की महत्ता और समाज को जो उदारता से देन दी है, उसका विशाल पैमाने पर लेखा-जोखा भी प्रस्तुत किया है। मैं उनके प्रति अपनी कृतज्ञता समर्पित करता हूँ।
प्राकृत भारती के संस्थापक श्री डी०आर० मेहता और एम०एस०पी०एस०जी० चेरिटेबल ट्रस्ट के मैनेजिंग ट्रस्टी श्री मंजुल जैन ने इसको संयुक्त प्रकाशन के रूप में सहयोग देकर मेरे इस कार्य को प्रगति प्रदान की है, उसके लिए मैं इन दोनों संस्थाओं के पदाधिकारियों का आभार व्यक्त करता हूँ।
गच्छ और परम्पराओं के चिंतक एवं लेखक डॉ. शिवप्रसाद, सम्पादक श्रमण (पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी) का मुझे जो सहयोग मिला, उसके लिए उन्हें साधुवाद भी और आशीर्वाद भी।
सर्वाधिक आभार एवं साधुवाद मैं आत्मीय संत महोपाध्याय श्री ललितप्रभसागरजी महाराज के प्रति समर्पित करता हूँ जिन्होंने न केवल इस ग्रन्थ का सम्पूर्ण अवलोकन कर मुझे महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये, अपितु इसके मुद्रण-प्रकाशन का दुरूह कार्य भी अपने मार्गदर्शन में सम्पन्न करवाने का अप्रतिम सहयोग प्रदान किया। मैं उनका अभिवादन करता हूँ।
__ अन्त में आत्मीय भाई श्री सुरेन्द्र बोथरा, आयुष्मान मंजुल, पुत्रवधु नीलम, पुत्र विशाल, पौत्री तितिक्षा और पौत्र वर्धमान के स्नेह, समर्पण और सहयोग के लिए ढेर सारे साधुवाद और अन्तरंग आशीर्वाद।
- म० विनयसागर
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स्वकथ्य
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