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________________ १०९. व्याकरण, छन्द, अलंकार, उत्तम नाटक और अपरिमित प्रमाण (न्याय) शास्त्र प्रसिद्ध निर्दोष सिद्धान्तादि त्रैविध रूपी महानगर के मार्गों में प्राप्य जनों के प्रचार (प्रवेश) निमित्त सारथीभूत और अपने अति तीक्ष्ण-बुद्धि-बल से सुरगुरु (बृहस्पति) को भी पराजित करने वाले आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज ने संवत् १३८५ फाल्गुन सुदि चतुर्थी के दिन उच्चानगर, बहिरामपुर, क्यासपुर आदि स्थानों से आने वाले खरतरगच्छीय श्रावकों के मेले में पदस्थापना, क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं की दीक्षा, माला-ग्रहण आदि नन्दि महोत्सव बड़े विस्तार से किया। इसी महोत्सव में पंडित कमलाकर गणि को वाचनाचार्य पद दिया और नव दीक्षित क्षुल्लक व क्षुल्लिकाओं की उपस्थापना की। बीस श्राविकाओं ने माला ग्रहण की, अनेक श्रावक-श्राविकाओं ने परिग्रह-परिमाण, सामायिकारोपण, सम्यक्त्व-धारण आदि कार्य किये। ११०. इसके बाद सं० १३८६ में उपमातीत सच्चे अन्तःकरण की अति-दृढ़-भक्ति समुदाय रूपी शृंगार से सौभाग्यशाली, मंगलभूत श्री देव-गुरुओं की आज्ञा रूपी चिन्तामणि विभूषण को मस्तक पर चढ़ाने की भावना वाले, जिनशासन की प्रभावना रूपी भूमि-तन को सींचने में मेघ घटा का अनुसरण करने वाले बहिरामपुरीय खरतर संघ के विशेष आग्रह से युगप्रधानाचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज पार्श्वनाथ स्वामी के विधि-मन्दिरों में जाकर जिनकी सेवा से सब मनोरथ पूरे होते हैं ऐसे श्री पार्श्वनाथ भगवान् की विधिपूर्वक वन्दना की। आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज हमेशा सुविहित साधुओं के विहार क्रम से विचरने वाले थे। चौतरफ विस्तारित होने वाली अपनी कीर्तिप्रभा से प्राणियों के आंतरिक अज्ञान रूपी घोर अंधकार को हटाने वाले थे। अनेकों प्रकार के मांगलिक कार्य करने के लिए श्रावक संघ को जागृत करने वाले थे, स्वीकारे हुए चरण सित्तरी व करण सित्तरी के गुणों से अलंकृत देह वाले एवं उत्तम श्रावक-गण के परिवार वाले थे और भव्य जीव रूपी कमल वन को प्रबोधित करने में यानि प्रतिबोध देने में सदा उद्यत रहने वाले थे। श्रावकों के मोहान्धकार को हटाने के लिए बहिरामपुर पधारे और वहाँ पर नगर प्रवेश के समय सेठ भीमसिंह, सा० देदाजी, सा० धीराजी, सा० रूपाजी आदि बहिरामपुर वास्तव्य समग्र विधि-समुदाय ने स्वजन या परजन सभी के हृदयों में चमत्कार उत्पन्न करने वाला बड़े ही विस्तार से महान् उत्सव किया। उस प्रवेशोत्सव में अनेक लोग पूज्यश्री के सम्मुख आये। उनके द्वारा महाराज के कुन्द (मोगरे) के फूल तथा चन्द्र किरण सदृश श्रेष्ठ शम-दमादि अनेकविध संयम गुणों का उत्कीर्तन रूप निर्मल यशोवर्णन किया जाता था। रमणीय आकृति, सुन्दर-रूप-लावण्य आदि गुणों से युक्त महाराज अपनी महिमा के अतिशय से तीक्ष्ण धार वाले फरसे की तरह विघ्न-वेलड़ियों को काटने में दक्ष थे। वहाँ पर बहिरामपुरीय श्रावक समुदाय ने किसी चैत्य या प्रतिमा आदि की प्रतिष्ठा पूज्यश्री के कर-कमलों से करवाई। इस प्रतिष्ठा स्थापना महोत्सव में सम्मिलित होने के लिए अनेक ग्रामों तथा नगरों से बहुत से श्रावक समुदाय आये थे। यावत् कमला गच्छ के श्रावक भी सम्मिलित थे। इस अवसर पर सभी की ओर से पारस्परिक स्पर्द्धापूर्वक साधर्मी-वात्सल्य, संघ-पूजा, अवारित सत्र आदि नाना प्रकार से शासन प्रभावनाएँ की गई थीं। नगर में एकटक देखने योग्य अनेक प्रकार के खेल तमाशों से जगह-जगह सुन्दर नृत्य के (१९०) Jain Education International 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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