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________________ और शिलामय-पीतलादि धातुमय अनेक जिन-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। यह उत्सव बहुत दिनों तक मनाया गया था। इसमें जगह-जगह नाटकों का आयोजन किया गया था। गन्धर्यों में प्रसिद्ध हा-हाहू-हू के समान गायनाचार्यों ने अपनी संगीत कला का परिचय दिया था। बन्दीजनों ने नाना प्रकार की सरस कविताएँ पढ़ी थीं। महर्द्धिक श्रावक राज्याधिकारियों द्वारा सोना, चाँदी, अन्न, वस्त्र, घोड़े आदि देकर याचक वर्ग को तृप्त किया गया था। भविष्यत् काल में होने वाले क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं को पुष्पांक दान बड़े विस्तार से किया गया था। साधर्मी-वात्सल्य, संघ-पूजा आदि अनेक विध धार्मिक कार्यों से, विषम दुःषमकाल में भी सुषमाकाल का सा भान होता था। यह उत्सव चक्रवर्ती के पट्टाभिषेकोत्सव के समान था। महामिथ्यात्व रूपी दैत्य के विनाश करने में श्रीकृष्ण का अनुकरण करने वाला था। स्वपक्ष के पुरुषों को आनन्दप्रद था। द्वेषी विपक्षियों के हृदय में कील की तरह चुभने वाला था। अपने विधिधर्म साम्राज्य की प्राप्ति पूर्वक मिथ्यात्व भूपाल को पराजित करने निमित्त की गई सिंध देश की विजय यात्रा से समुपार्जित पुण्यरूपी राज्य-लक्ष्मी के पाणिग्रहण का परिचय कराने वाला था। ___ इस सुअवसर पर नौ निधान तुल्य नौ क्षुल्लक और तीन क्षुल्लिकाएँ महाराज की अधीनता में आये यानि उनको दीक्षा दी। इनके नाम- भावमूर्ति, मोदमूर्ति, उदयमूर्ति, विजयमूर्ति, हेममूर्ति, भद्रमूर्ति, मेघमूर्ति, पद्ममूर्ति, हर्षमूर्ति तथा कुलधर्मा, विनयधर्मा, शीलधर्मा इस प्रकार थे। इस समय ७७ श्रावक-श्राविकाओं ने परिग्रह-परिमाण, सामायिकारोपण, सम्यक्त्वारोपण आदि व्रत धारण किये। सुगुरु चक्रवर्ती आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी महाराज प्रतिदिन वृद्धि प्राप्त शिष्य-प्राप्ति आदि लब्धि-सम्पन्न बड़े प्रभावशाली आचार्य थे। इन्होंने आर्य-अनार्य सभी देशों में जिनधर्म की प्रवृत्ति बढ़ाई। अनेकों भूपतियों को प्रतिबोध दिया था। निर्लोभता, सूरिमंत्र का आराधन, नाना शास्त्रों की व्याख्या करना, संवेग भावना, सुरासुरवशीकरण, प्रतिवादी निराकरण, सर्व ग्रामों और नगरों में जिन भवन-जिन प्रतिमा स्थापना करना आदि नाना प्रकार की लब्धि-शक्ति से गौतमस्वामी, सुधर्मस्वामी आर्य सुहस्तिसूरि, वज्रस्वामी, सूरिमंत्र के प्रभाव को प्रकट करने में प्रवीण आ० श्री वर्द्धमानसूरि, नवाङ्गी टीकाकार एवं स्तंभन पार्श्वनाथ स्वामी को प्रकट करने द्वारा उपार्जित विशुद्ध यश वाले आचार्य श्री अभयदेवसूरि तथा अनेकों देवताओं के आराध्य एवं मरुस्थली में कल्पद्रुम के अवतार श्री जिनदत्तसूरि, प्रतिवादी रूपी हस्ती समूह को बिखेरने में पंचानन सिंह समान श्री जिनपतिसूरि, अनेकों स्थानों में उत्तुंग तोरण व शिखरों से शोभित जिनमन्दिर तथा जिनप्रतिमाओं के प्रतिष्ठापकाचार्य जिनेश्वरसूरि आदि अपने पूर्वज युगप्रधान पुरुषों की पद्धति का इन्होंने पूर्णतया अनुकरण किया था। तपस्या, क्रिया, विद्या, व्याख्यान, ध्यान आदि के अतिशय से वशीभूत देवता, बड़े-बड़े म्लेच्छ व हिन्दू राजाओं द्वारा वन्दनीय चरण-कमल वाले युग-प्रवरागमाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज के प्रधान शिष्य थे। इन्होंने युगप्रधान पद प्राप्ति के बाद प्रतिवर्ष वृद्धिंगत किए जाने वाले प्रतिष्ठा, व्रतग्रहण, मालारोपण, महातीर्थ-यात्रा-विधान आदि कार्यों से विश्व भर में गोक्षीर, शिव के अट्टहास, हिमकण, चन्द्र किरण के समुदाय सदृश उज्ज्वल यश:ख्याति प्राप्त कर ली थी। संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only (१८९) www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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