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________________ प्रकार प्रिय वस्तु का लोग अनेक तरह से अभिवादन करते हैं, इसमें कोई बुराई की बात नहीं तथा उनके सेवकगण भी उनके लिए इसी प्रकार के शब्द व्यवहार करते हैं। यह पद्मप्रभाचार्य राज्य सभा में मनमानी बातें करता हुआ सब के साथ शत्रुता प्रकट करता है। इस कथन को सुनकर राजा ने कहा-आचार्य जी! आप ठीक कहते हैं। यह तो लोकाचार है, कोई विशेष बात नहीं। राजा के ध्यान में यह बात भी आ गई कि पद्मप्रभाचार्य ईर्ष्यावश चुगली कर रहा है। राजा पृथ्वीराज ने जनार्दन, विद्यापति आदि अपने राजपण्डितों से कहा कि-आप लोग सावधान होकर परीक्षा करें कि इन दोनों में कौन महाविद्वान है। इनमें से जो योग्य विद्वान हो उसको जयपत्र दिया जाये और उसका ही सत्कार किया जाये। पण्डितों ने कहा-राजाधिराज ! न्याय, व्याकरण आदि विषयों में आचार्य जिनपतिसूरि जी प्रौढ़ विद्वान हैं। इस बात की हमने परीक्षा कर ली है। अब आपकी आज्ञा से इनके साहित्य विषयक अनुभव की जाँच करते हैं। राज-पण्डित बोले-आप दोनों महाशय राजा पृथ्वीराज ने भादानक के नरपति को जीत लिया इस विषय को लेकर कविता कीजिए। महाराज ने क्षण मात्र एकाग्र चित्त होकर उक्त विषय पर निम्न पद्य प्रस्तुत किया यस्यान्तर्बाहुगेहं बलभृतककुभः श्रीजयश्रीप्रवेशे, दीप्रप्रासप्रहार - प्रहतघट - तटप्रस्तमुक्ता वलीभिः । नूनं भादानकीयै रणभुवि करिभिः स्वस्तिकोऽपूर्यतोच्चैः, पृथ्वीराजस्य तस्यातुलबलमहसः किं वयं वर्णयामः॥ [अतुल बलशाली इस राजा पृथ्वीराज का हम कहाँ तक वर्णन करें। इन्होंने अपने सैन्य बल से तमाम दिशाओं को जीत लिया है। अतएव जयलक्ष्मी ने आकर इनकी भुजाओं को अपना घर बना लिया है। प्रथम ही प्रथम नवोढा वधू घर में प्रवेश करती है, उस समय गृह द्वार में स्वस्तिक का निर्माण किया जाता है, वैसे ही इनकी भुजाओं में जयलक्ष्मी प्रवेश के समय रणभूमि में भदानक राजा के हाथियों ने तीखे भालों की मार से फटे हुए अपने कुंभस्थल से निकले हुए गज-मुक्ताओं से स्वस्तिक पूर्ति की है।] इस श्लोक को बनाकर आचार्य ने इसकी व्याख्या की। देखा-देखी पद्मप्रभाचार्य ने भी पूर्वापर को बिना सोचे ही शीघ्रतया संक्षेप में एक श्लोक बनाकर सुनाया। पूज्यश्री ने कहा-श्लोक तो चार चरणों का ही देखा और सुना है। पद्मप्रभाचार्य! यह विचित्र श्लोक पाँच चरणों वाला क्यों बनाया है? तदनन्तर उसी श्लोक में सदस्य लोगों को पाँच अशुद्धियाँ दर्शाई। ईर्षावश पद्मप्रभाचार्य ने भी कहा-आचार्य ने जो यस्यान्तर्बाहुगेहम् श्लोक कहा यह तात्कालिक रचना नहीं है, पहले का अभ्यास किया हुआ है। (७२) खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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