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________________ प्राणान्न हिंस्यान्न पिबेच्च मद्यं वदेच्च सत्यं न हरेत्परस्वम् । परस्य भार्यां मनसा न वाञ्छेत्, स्वर्गं यदीच्छेद्विधिवत्प्रवेष्टुम् ॥ पद्मप्रभ० - आचार्य जी ! आप इस वचन चातुरी से बेचारे भोले आदमियों को ठगते हैं । पूज्य श्री - यदि शक्ति हो तो आप भी ऐसा करें । मंत्री कैमास बोला - आप लोगों ने पहले-पहले ही यह शुष्क वाद क्यों छेड़ा? यदि आप लोगों में कुछ विद्वता की शक्ति है तो आप दोनों में से एक महात्मा किसी एक विषय को लेकर उसकी स्थापना करें और दूसरा उसका खण्डन करें । पूज्य श्री - पद्मप्रभाचार्य ! मंत्रीश्वर का कथन बहुत ठीक है । अतएव आप किसी पक्ष का आश्रय लेकर बोलिए । वह बोला- आचार्य ! जिनशासन के आधारभूत ऐसे अनेक आचार्यों को सम्मत है वह दक्षिणावर्त आरती के परित्याग का क्या कारण है? विद्वानों का कथन है कि "वक्रो वक्रोक्तयैव निर्लोठ्यः " कुटिल को कुटिलता से ही दबाना चाहिए, इस अभिप्राय को लेकर पूज्यश्री बोले- क्या आपके कथनानुसार बहुजन सम्मत वस्तु को आदरणीय समझना चाहिए। यदि ऐसा है तो मिथ्यात्व का आदर क्यों नहीं करते? इसे भी अनेक आदमियों ने अपना रखा है। पद्मप्रभ-वृद्ध परम्परागत जो कुछ भी हो उसका हम आदर करते हैं । पूज्य श्री - वृद्ध परम्परागत न होने पर भी चैत्यवास को आपके पूर्वजों ने क्यों अपनाया? पद्मप्रभ - कैसे माना जाय कि चैत्यवास वृद्ध परम्परागत नहीं है । पूज्य श्री - क्या भगवान् महावीर के समवसरण में या किसी जिन मन्दिर में गणधर गौतम स्वामी के भोजन-शयन का कहीं वर्णन आया है? इसका उत्तर न आने से पद्मप्रभाचार्य लज्जित होकर बोले- आचार्य ! "कर्ण स्पृष्टे कटिं चालयसि " कान छूने पर कटि प्रदेश को हिलाने जैसा करते हो? मैंने पूछा था कि- दक्षिणावर्तारात्रिकावतारण विधि परम्परागत है फिर भी आप लोगों ने इसका त्याग क्यों किया? इसी बीच में आप ले आये चैत्यवास के प्रसंग को । पूज्य श्री - मूर्ख ! ' वक्रे काष्ठे वक्रो वेधः क्रियते' टेढ़े काठ में टेढ़ा ही वेध किया जाता है। क्या यह न्याय आपको याद नहीं है? अथवा जो कुछ भी हो। अब आप सावधान होकर सुनिये। आपने कहा -दक्षिणावर्तीरात्रिकावतारण विधि वृद्ध परम्परागत है, यह कैसे जाना जाये ? क्योंकि सिद्धान्त ग्रन्थों में तो आरात्रिकावतारण विचार है ही नहीं । किन्तु महावीर स्वामी के बाद होने वाले बहुश्रुत विद्वानों ने जनकल्याण के लिए इन विधियों का अनुष्ठान आचरित किया है। अब प्रश्न यह होता है कि उनसे अनुष्ठित विधि दक्षिणावर्त थी या वामावर्त? इस संशय को दूर करने के लिए किसी युक्ति (६८) Jain Education International 2010_04 खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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