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का अनुसंधान करना चाहिए । इस विषय में " न शवमुष्टि न्यायः कर्त्तव्यः " जैसे मुर्दे की मुट्ठी बन्द हुए बाद खुलती नहीं, वैसे ही हठ करना योग्य नहीं है, किन्तु जो युक्ति युक्त हो, उसे मानना चाहिए, इससे विपरीत को नहीं ।
इस बात को सुनकर सभी सभासद बोले- पद्मप्रभ ! आचार्यश्री ठीक कहते हैं ।
तत्पश्चात् सभी की सम्मति से प्रमाणपूर्वक पूज्य श्री उसी सभा में सभी के शरीर में रोमांच पैदा करने वाली धाराप्रवाही देव वाणी (संस्कृत) से बोलकर वामावर्त्तारात्रिकावतारण की यथावत् स्थापना की। इस प्रकरण का हम यहाँ अधिक विस्तार नहीं करेंगे। यदि विशेष देखता हो तो वहाँ प्रद्युम्नाचाय कृत वादस्थल नामक ग्रंथ पर पूज्य श्री का बनाया हुआ वादस्थल ग्रन्थ है, उसमें देख सकते हैं । यहाँ ग्रन्थ गौरव के भय से नहीं लिखा है। अधिक क्या कहें? इस पर सभी सभ्यों ने पूज्य श्री का जय जयकार किया ।
४९. इसी अवसर पर राजा पृथ्वीराज भी सभा में आ गये और राजसिंहासन पर बैठकर पूछने
लगे
मंडलेश्वर ! कहो कौन जीता और कौन हारा?
मंडलेश्वर ने पूज्यश्री की तरफ अंगुली निर्देश करके कहा- ये जीते हैं ।
पद्मप्रभ इस बात से चिढ़कर बोला- राजन् ! मंडलेश्वर रिश्वत लेने में प्रवीण हैं, गुणियों के गुण ग्रहण करने में प्रवीण नहीं हैं ।
इस बात को सुनकर क्रुद्ध हुआ मंडलेश्वर बोला - रे मुण्ड श्वेतपट ! अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। ये आचार्य बैठे हैं और ये सब सभासद उपस्थित हैं। मैंने रिश्वत ले ली है तो मैं मौनधारण किये बैठा रहूँगा। बड़ी खुशी है यदि आप अभी भी महाराजा श्री पृथ्वीराज के समक्ष आचार्य को जीत लें, तो मैं मान लूँगा कि पहले भी आप ही जीते ।
पद्मप्रभाचार्य मंडलेश्वर कैमास की नाराजगी का ख्याल करके कुछ सहम गये और बोलेमहानुभाव ! मैं यह नहीं कहता कि आपने आचार्य जी के पास से किसी तरह की रिश्वत ली है। आपके समझने में कुछ भ्रम हो गया है । मेरा कथन यह है कि आचार्य जिनपतिसूरि जी ने अपना गला फाड़ कर जबरदस्ती से समस्त आचार्यों के अभिमत दक्षिणावर्तारात्रिकावतारण विधि को अमान्य ठहरा कर आपके हृदय में विपरीत विश्वास जमा दिया है।
इस कथन को सुनकर पूज्यश्री बोले- महात्मन् पद्मप्रभ! विधि सब आचार्यों को अभिमत है, यह कथन आपका सत्य नहीं है । क्यों हमारी आज्ञा में रहने वाले आचार्यों को यह मान्य नहीं है। पद्मप्रभाचार्य-क्या आप अन्य आचार्यों से अधिक ज्ञानवान हैं जो आप उनके अभिमत अर्थ को नहीं मानते।
१. कैमास को मंडलेश्वर की उपाधि मिली हुई थी इसलिए इसको "मंडलेश्वर" सम्बोधन दिया गया है।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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