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________________ का वैशिष्ट्य है कि इसमें वर्णित सारी घटनाएँ आँखों देखी हैं। आचार्यों का पदाभिषेक, विहार, नगरस्थ राजाओं का सम्पर्क, राज्यसभाओं में शास्त्रार्थ, प्रतिष्ठा समारोह, मुनि दीक्षाएँ, पद- समारोह, भिन्न-भिन्न नगरस्थ आचार्यों से सम्पर्क और उनके साथ शास्त्रार्थ आदि का सजीव वर्णन इसमें उपलब्ध होते हैं। इसकी ऐतिहासिकता इसी से स्पष्ट है जिन राजाओं का वर्णन किया है, वे उस समय शासक थे और जिस सम्वत् और मास में उन्होंने प्रतिष्ठाएँ करवाई थीं उनमें से कुछ प्रतिमाएँ आज भी विद्यमान हैं। इसकी एक मात्र हस्तलिखित प्रति क्षमाकल्याणोपाध्याय संग्रह, सुगनजी का भण्डार, बीकानेर में उपलब्ध है। इस ग्रंथ - रत्न की प्राप्ति से नाहटा बन्धुओं को पुत्र - जन्मोत्सव की तरह असीम हर्ष हुआ और उन्होंने किसी साधारण विद्वान् से प्रतिलिपि करवाई । इस प्रतिलिपि को आचार्य प्रवर श्री जिनहरिसागरसूरिजी महाराज के पास हिन्दी अनुवाद हेतु भिजवाई। आचार्यश्री ने भी किसी पंडित से हिन्दी अनुवाद करवाया । अशुद्ध प्रति का अनुवाद भी उन्होंने पंडिताउ भाषा में कर डाला । इस कारण वह अनुवाद प्रामाणिक अनुवाद नहीं बन सका । दैनंदिन डायरी के समान ऐतिहासिक घटनाओं से ओत-प्रोत इस कृति को देखकर पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजयजी ने इसका संशोधन-सम्पादन कर 'खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली' के नाम से भारतीय विद्या भवन, मुंबई द्वारा सन् १९५६ में प्रथम संस्करण प्रकाशित किया था। इसी ग्रंथ का दूसरा संशोधित संस्करण मेरे द्वारा सम्पादित होकर प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर से सन् २००० में प्रकाशित हुआ है। इस ग्रंथ की ऐतिहासिक महत्ता को प्रदर्शित करते हुए जिनविजयजी लिखते हैं 'सिंघी जैन ग्रंथमाला में खरतरगच्छ युगप्रधानाचार्य गुर्वावली नामक एक संस्कृत गद्य ग्रंथ छप रहा है जो शीघ्र ही प्रकाशित होगा । इस ग्रंथ में विक्रम की ११वीं शताब्दी के प्रारंभ में होने वाले आचार्य वर्द्धमानसूरि से लेकर १४वीं शताब्दी के अन्त में होने वाले जिनपद्मसूरि तक के खरतरगच्छ के मुख्य आचार्यों का विस्तृत चरित वर्णन है। गुर्वावली अर्थात् गुरु-परम्परा का इतना विस्तृत और विश्वस्त चरित वर्णन करने वाला ऐसा कोई और ग्रंथ अभी तक ज्ञात नहीं हुआ । प्रायः ४००० श्लोक परिमाण यह ग्रंथ है और इसमें प्रत्येक आचार्य का जीवन चरित्र इतने विस्तार के साथ दिया गया है कि जैसा अन्यत्र किसी ग्रंथ में, किसी भी आचार्य का नहीं मिलता। पिछले कई आचार्यों का चरित्र तो प्रायः वर्ष वार के क्रम से दिया गया है और उनके विहार-क्रम का तथा वर्षा निवास का क्रमबद्ध वर्णन किया गया है । किस आचार्य ने कब दीक्षा ली, कब आचार्य पदवी प्राप्त की, किस-किस प्रदेश में विहार किया, कहाँ-कहाँ चातुर्मास किये, किस जगह कैसा धर्मप्रचार किया, कितने शिष्य - शिष्याएँ आदि दीक्षित किये, कहाँ पर किस विद्वान् के साथ शास्त्रार्थ या वाद-विवाद किया, किस राजा की सभा में कैसा सम्मान आदि प्राप्त किया - इत्यादि बहुत ही ज्ञातव्य और तथ्य-पूर्ण बातों का इस ग्रंथ में बड़ी विशद रीति से वर्णन किया गया है। गुजरात, मेवाड, मारवाड, सिन्ध, वागड, पंजाब, और बिहार आदि अनेक देशों के, अनेक गाँव में रहने सैकडों ही धर्मिष्ठ और धनिक श्रावक-श्राविकाओं के कुटुंबों का और व्यक्तियों का नामोल्लेख इसमें मिलता है और उन्होंने कहां पर, कैसे पूजा-प्रतिष्ठा एवं संघोत्सव आदि धर्म कार्य किये, इसका निश्चित विधान मिलता है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह ग्रंथ, अपने ढंग की एक अनोखी कृति जैसा है। हम इसका हिन्दी अनुवाद के साथ संपादन कर रहे हैं। इस ग्रंथ के आविष्कारक बीकानेर निवासी साहित्योपासक श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटा हैं और इन्होंने Jain Education International 2010_04 स्वकथ्य For Private & Personal Use Only ( ३७ ) www.jainelibrary.org
SR No.002594
Book TitleKhartar Gacchha ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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